Friday, October 12, 2012

तीन लघु कविताएं : नजरिया, बाहरी आदमी, चिंता

                                                                                         - मिलन सिन्हा

 नजरिया
मैं जो था 
कमोबेश वही हूँ 
समय के साथ 
अगर 
कहीं कुछ  बदला है 
तो वह है 
मेरे प्रति 
लोगों का नजरिया !

बाहरी  आदमी
मैं 
परेशान हो उठता हूँ 
जब खुद को 
बाहरी आदमी बनकर 
देखने लगता हूँ !

 चिंता 
मेरे 
इस दुनिया में रहने 
या न रहने से 
उनका 
कुछ नहीं बिगड़ता है .
उन्हें तो 
केवल चिंता है 
चारों तरफ हवा में तैरते 
मेरे नाम की !

                           will meet again with Open Mind. All the Best.

4 comments:

  1. Nice poem.Aap ka najaria achha hai.SG

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  2. Dekheye, aapka bhi mere prati najaria badla na? Dhanyabaad.

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  3. Loved the last poem. Describes how people now a days are worried too much about others getting the fame.

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