Wednesday, May 2, 2018

यात्रा के रंग अनेक : गंगटोक से भारत-चीन सीमा की ओर

                                                                                - मिलन  सिन्हा
...गतांक से आगे ...  कहते हैं न कि ‘दिल है कि मानता नहीं’ या यूँ कहें कि यह दिल मांगे मोर. आखिर क्यों न मांगे ? सच तो यह है कि आपका, हमारा - सबका दिल कुछ और भी देखना चाहता है. दिल मांगे मोर.... तो हम सुबह-सुबह ही निकल पड़े एक बेहद रोमांचक यात्रा पर.

आज हमारे सारथी थे दिलीप, अपनी टाटा सूमो गाड़ी के साथ. गंगटोक में पले-बढ़े दिलीप अपने कॉलेज के दिनों और उसके बाद भी राजनीतिक कार्यकर्त्ता के रूप में काफी सक्रिय रहे. परिवार की जिम्मेदारी आने के बाद से वे इस काम में लगे हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से पूर्णतः जागरूक हैं. उनके पास सिक्किम के सभी बड़े राजनीतिक पार्टियों और उनके सभी बड़े नेताओं के कार्य-कलाप की अच्छी और ताजा जानकारी है. मुझे ये बातें दिलीप से चंद मिनट की बातचीत से पता चल गया. ऐसे अभी उसकी पत्नी एक बड़े पार्टी की सक्रिय मेम्बर है. दिलीप के साथ वार्तालाप से मुझे मोटे तौर पर सिक्किमवासियों के रहन-सहन, खान-पान आदि के बाबत भी काफी जानकारी मिली. मसलन, सामान्यतः आम सिक्किमवासी सफाई पसंद है, बेटा-बेटी में फर्क नहीं करते, बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक हैं, अधिकांश लोग मांसाहारी हैं, आदि. जानना दिलचस्प है कि 2011 के जनगणना के अनुसार सिक्किम में साक्षरता दर 82 प्रतिशत है, जो कि कर्नाटक, पश्चिम  बंगाल और तमिलनाडू से भी बेहतर है. उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, झाड़खंड और  बिहार से तो बहुत आगे है. सिक्किम देश का पहला राज्य है जो खुले में शौच से मुक्त बना. जैविक खेती करने के मामले में भी सिक्किम को देश का पहला राज्य बनने का गौरव प्राप्त है. 

गंगटोक से बाहर निकलते ही जवाहरलाल रोड पर हमें दो चेक पोस्ट पर रुकना पड़ा. सभी गाड़ियों को रुकना पड़ता है वहां.  उस रास्ते से भारत –चीन सीमा की ओर जानेवाले हर यात्री के पहचान पत्र और परमिट की पूरी जांच होती है –नियमपूर्वक बिना किसी भेदभाव के और बिना किसी लेनदेन के. गाड़ी के चालकों के लिए यह उनके रूटीन का हिस्सा है, लेकिन पर्यटकों के लिए एक नया अनुभव. हमारे गाड़ी के मालिक -सह-चालक दिलीप ने बताया कि जितनी गाड़ियां और जितने यात्री सुबह इधर से सीमा की ओर जाते हैं, वे सभी गाड़ियां एवं यात्री शाम को उधर से वापस आये कि नहीं इसका पूरा हिसाब रक्खा जाता है. कहीं  हेरफेर होने पर तुरत उसका संज्ञान लिया जाता है, त्वरित कार्रवाई की जाती है. हो भी क्यों नहीं, आखिर देश की सुरक्षा के साथ-साथ एक-एक यात्री की सुरक्षा-संरक्षा  का सवाल जो है.

  
सीमा सड़क संगठन (बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन) के अंतर्गत आनेवाले  घुमावदार पहाड़ी सड़क पर अब हम धीरे धीरे भारत-चीन सीमा की ओर बढ़ रहे थे. इस स्थान को “नाथू ला पास” के रूप में जाना जाता है. गंगटोक से यहाँ की दूरी करीब 56 किलोमीटर है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 14200 फीट है. बॉर्डर तक जाने के लिए यात्रा से एक दिन पहले सिक्किम सरकार से विशेष परमिट (पास) लेना अनिवार्य है. उधर जाने वाली प्रत्येक गाड़ी को भी परमिट लेना पड़ता है, बेशक गाड़ियां नाथू ला से पहले के एक-दो पर्यटक स्थान से होकर ही क्यों न लौट आये. परमिट बनवाने के लिए गंगटोक के प्रसिद्ध एम. जी. रोड पर स्थित सिक्किम टूरिज्म के ऑफिस या किसी भी अधिकृत टूर ऑपरेटर से संपर्क किया जा सकता है. हमारे ड्राईवर ने बताया कि हर दिन छोटी–बड़ी गाड़ियों का एक बड़ा काफिला, जिसकी संख्या स्थानीय प्रशासन द्वारा सुरक्षा सहित कई अन्य मामलों को ध्यान में रख कर तय किया जाता है, उस दिशा में जाता है. ऐसे, प्रशासन की यह कोशिश होती है कि ज्यादातर बड़ी गाड़ियां – सूमो, बोलेरो, स्कार्पियो आदि को तरजीह दी जाय जिससे कि ज्यादा लोग वहां तक जा सकें और वहां के सीमित पार्किंग स्पेस में गाड़ियों को पार्क किया जा सके; किसी भी तरह के जाम से बचा जा सके. 

जैसे –जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, हमें निरंतर एक पहाड़ी सड़क से अगले ऊंची सड़क पर पहुंचने का एहसास और रोमांच हो रहा था. दिलचस्प बात यह थी कि उल्टी दिशा से न के बराबर गाड़ी आ रही थी. कारण यह बताया गया कि सेना या प्रशासन की एक्का-दुक्का गाड़ियों को छोड़ कर सुबह के समय सभी गाड़ियां ऊपर की ओर जाती हैं और अपराह्न में वही गाड़ियां गंगटोक की ओर लौटती हैं. लिहाजा पहाड़ी सड़क में निरंतर घुमावदार रास्ते से चलने की बाध्यता के बावजूद भी गाड़ियां थोड़ी तेज ही चल रहीं थी. चालकों का दक्ष होना भी बड़ा कारण हो सकता है. रास्ते में हमें कहीं- कहीं सेना के पोस्ट एवं छावनी दिखाई पड़े. स्वभाविक रूप से वे इलाके ज्यादा साफ़ और व्यवस्थित लगे. 

पेड़-पौधों से आच्छादित ऊँचें-ऊँचे पहाड़ों के साथ और दूर ऊपर के रास्तों में आगे बढ़ते गाड़ियों की कतार को देख कर यह उम्मीद तो कायम थी कि हम आज “नाथू ला पास” और उसके नजदीक के अन्य दर्शनीय स्थानों का लुफ्त उठा पायेंगे. उस ऊंचाई पर पहाड़ों को हिमाच्छादित देखने का कौतुहल तो था ही. चालक ने बताया कि आज आगे ऊँचे  पहाड़ों पर हिमपात की संभावना है, कारण कल रात भी बारिश  हुई है और मौसम का मिजाज बता रहा है कि आगे हमें इसका आनंद लेने का मौका मिल जाएगा. ऐसे, अगर हिमपात होते हुए और पहाड़ों को बर्फ से ढंका देखने का अवसर मिल जाय, वह भी अप्रैल से सितम्बर के बीच तो समझिये आपका वहां जाना सफल हो गया, पैसा वसूल हो गया.

बहरहाल, नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाते हुए हम आ पहुंचे गंगटोक से करीब 40 किलोमीटर की दूरी और करीब 7000 फीट ज्यादा ऊँचे स्थान पर अवस्थित  “सोमगो अर्थात छान्गू झील” के बिलकुल करीब. और अब हमें ऊँचें पहाड़ों पर यहां-वहां बर्फ के छोटे-छोटे चादर दिखने लगे. मन मचलने लगा ऐसे और भी दृश्य को आँखों और यादों में भरने को. 

यहाँ तक पहुंचने में हमें करीब तीन घंटे लगे. गत रात बारिश हुई थी, सो एक-दो जगह पर भू-स्खलन के कारण सड़क में अवरोध था जिसे ठीक करने में बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन के कर्मी लगे हुए थे, फिर भी गाड़ियां धीरे –धीरे आगे बढ़ रही थी. हां, एक-दो बार गाड़ी थोड़ी देर के लिए रुकी जरुर. अच्छा ही हुआ. नीचे उतर कर चारों ओर देखने का एक मौका जो मिला. आगे –पीछे अनेक गाड़ियां थी, पर कोई हल्ला-गुल्ला नहीं था. ज्यादातर यात्री गाड़ियों  में ही बैठे थे. एक ओर ऊँचे पहाड़ और दूसरी ओर गहरी खाई. नजदीक से देखें तो चक्कर आ जाए. ड्राईवर ने दिखाया और बताया कि वह जो दूर ऊपर अलग-अलग ऊंचाई के सांपनुमा सड़क पर कई गाड़ियों के झुण्ड रेंगते दिख रहे हैं, उधर से ही हमें भी जाना है. सोचकर थोड़ा डर तो लगा, पर रोमांच की अनुभूति ज्यादा हुई.


यहाँ मतलब छान्गू झील के पास तक पहुंचने से कुछ देर पहले ही रिमझिम बारिश शुरू हो चुकी थी. लिहाजा ग्रीष्म काल में भी ठंढ का एह्साह होने लगा और स्वीटर के ऊपर गर्म जैकट भी चढ़ गया; कनटोप और मफलर भी निकल गया. ड्राईवर ने सिर्फ 10 मिनट का ब्रेक दिया जिससे कि लोग वाशरूम जा सकें; चाय-काफी पी सकें. ऐसा इसलिए कि हमारे मुख्य लक्ष्य अर्थात “नाथू ला पास”  तक जल्दी पहुंचना पहली प्राथमिकता थी, जो यहाँ से करीब 16 किलोमीटर की दूरी पर है.  मौसम का कोई भरोसा जो नहीं था और बर्फ़बारी  भी शुरू हो चुकी थी. “नाथू ला पास” से लौटते वक्त छान्गू झील के पास ज्यादा देर तक रुकने का वादा ड्राईवर ने किया और गाड़ी आगे की ओर ले चला.

यहां यह जानना लाभदायक है कि “नाथू ला पास” जल्दी पहुंचने के फायदे भी कम नहीं. पहले तो गाड़ी पार्क करने में सुविधा, दूसरे वहां थोड़ा ज्यादा समय बिताने का अवसर, तीसरे शाम होने से पहले गंगटोक लौटने में आसानी और लौटते हुए बर्फ से आच्छादित कई स्थानों पर रुक कर फोटो खिचवाने का मौका. ऐसे हम भी समझ रहे थे कि सभी ड्राईवर ऐसी बातें करते हैं जिससे कि वे सीमित समय के भीतर यह टूर पूरा कर सकें. ऐसे इसमें गलत भी कुछ नहीं है. यात्री भी तो योजनानुसार टूर पूरा करना चाहते हैं, क्यों?

बहरहाल, चलते-चलते हम सोमगो अर्थात छान्गू झील के बारे में कुछ जान लेते हैं. यह स्थान समुद्र तल से 12300 फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है.  करीब एक किलोमीटर लम्बा  एवं लगभग 50 फीट गहरा  छान्गू झील चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. ये पहाड़ साल में छः महीने से ज्यादा समय सफ़ेद बर्फ से आच्छादित रहते हैं. सोमगो का अर्थ होता है जल का स्रोत. पहाड़ों पर जमनेवाले बर्फ के पिघलने से इस झील  में पानी सालों भर रहता है. बेशक जाड़े के मौसम के अलावे भी तापमान ज्यादा गिर जाने से कई बार झील का पानी बर्फ से ढंक जाता है. ग्रीष्म एवं शरद काल में यहाँ कई तरह के मोहक फूल दिखाई पड़ते हैं, जो इस पूरे इलाके को और भी खूबसूरत बना देता है. शीतकाल में बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों  को यहाँ देखा जा सकता है.

गाड़ी आगे बढ़ चली. पहाड़ों पर अब ज्यादा बर्फ दिखने लगे थे. आगे बीच-बीच में  यहां-वहां  सड़क मरम्मत का काम चल रहा था. बारिश के मौसम में पहाड़ी इलाकों में ऐसे दृश्य सामान्य हैं. आगे बढ़ने पर ड्राईवर ने बताया कि बस पास में ही है प्रसिद्ध बाबा मंदिर. लौटते वक्त यहां भी रुकेंगे, इस मंदिर को  देखेंगे. आइए, तब तक जान लेते है इस मंदिर के विषय में कुछ रोचक बातें. 


बाबा मंदिर “नाथू ला पास”  से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी  पर नाथू ला और जेलेप ला के बीच नाथू ला-गंगटोक मुख्य सड़क के निकट ही है. करीब 13,100 फीट की ऊंचाई पर स्थित  यह किसी देवी –देवता का मंदिर नहीं है. कहा जाता है कि बाबा मंदिर का निर्माण पंजाब  रेजीमेंट के एक जवान हरभजन सिंह की स्मृति में सेना के जवानों ने किया. बताया जाता है कि  वर्ष 1968  के जाड़े के मौसम में एक दिन कुछ पहाड़ी जानवरों को नदी पार करवाते समय एक हादसे में हरभजन सिंह नदी में डूब गए. साथी जवानों ने खोज की, पर वे मिले नहीं. फिर एक रात वे एक जवान के सपने में आये और बताया कि हादसे के बाद बर्फ में दब कर उनकी मौत हो गई है. दिलचस्प बात है कि सपने में बताये गए स्थान पर ही उनका शव मिला. सपने में ही साथी जवान से उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि उसी स्थान पर उनकी समाधि बनाई जाय. बाद में सेना के जवानों के द्वारा  उसी स्थान पर उनकी समाधि का निर्माण किया गया. बाबा मंदिर का निर्माण उसके कुछ अरसे बाद समाधि स्थल से थोड़ी दूर पर किया गया. स्वर्गीय हरभजन सिंह से जुड़ी कई बातें वहां के लोग अब तक रूचि लेकर साझा करते हैं.


आगे बढ़ने पर हमें मुख्य रास्ते के बिलकुल पास बैंक ऑफ़ इंडिया का एटीम दिखा -13200 फीट की ऊंचाई पर. बहुत अच्छा लगा. हमारे एक सह यात्री ने ड्राईवर से दो मिनट रुकने का अनुरोध किया. वे एटीम की ओर लपके और जल्द ही पेमेंट लेकर लौटे. वे बेहद खुश थे क्यों कि उन्हें पैसे की जरुरत थी, लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि इस स्थान पर एटीम होगा और बिना किसी दिक्कत के पेमेंट सुलभ होगा. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर सड़क किनारे बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन (बीआरओ) के एक हरे बोर्ड पर नजर पड़ी. लिखा था - “नाथू ला पास” तीन किलोमीटर दूर अर्थात अब हम अपनी मंजिल पर  पहुंचनेवाले थे. गाड़ी से उतरने से पहले ही ड्राईवर ने बताया कि  आगे बोर्ड पर जो कुछ लिखा है उसको फॉलो करना अनिवार्य है. इसके  मुताबिक़ आपको अपना कैमरा, मोबाइल फ़ोन आदि वहां नहीं ले जाना है अर्थात फोटो लेना वर्जित है. आप अगर बीपी, दमा आदि  के मरीज हैं तो डॉक्टर की सलाह से ही वहां जाएं, क्यों कि 14200 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान पर चारों ओर बर्फ ही बर्फ रहता है, और तापमान एवं ऑक्सीजन काफी कम.

“नाथू ला” कई मामलों में बहुत अहम है. आइये जानते हैं. 1950 में चीन द्वारा कब्ज़ा किये गए देश तिब्बत के दक्षिणी भाग में स्थित चुम्बी घाटी को भारत के सिक्किम प्रदेश से जोड़ने वाला स्थान “नाथू ला” है. यह हिमालय रेंज का पहाड़ी दर्रा है जिसके जरिए भारत  एवं चीन (चीन अधिकृत तिब्बत भी) के बीच अनेक वर्षों से व्यापार होते रहे. यह सिल्क रूट के नाम से जाना जाता रहा है. वर्ष 1958 में देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने इस स्थान का दौरा किया. हाँ, 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार मार्ग करीब 44 वर्षों तक बंद रहा. 2006 में इसे फिर खोला गया. कहते हैं कि प्राचीन काल में भारत आनेवाले ज्यादातर तिब्बती एवं चीनी पर्यटक तथा व्यवसायी इसी रास्ते का इस्तेमाल करते थे. एक बात और. कैलाश मानसरोवर तक जाने का यह ज्यादा सुगम मार्ग है, खासकर बुजुर्ग और बीमार तीर्थ यात्रियों के लिए, क्यों कि इस रास्ते यात्रियों  को कम समय लगता है और वे इस रास्ते मोटर गाड़ी से भी जा सकते हैं. वर्ष 2015 और 2016 में परम्परागत उत्तराखंड के लिपुलेख मार्ग के अलावे इस मार्ग का भी उपयोग किया गया. पिछले कुछ दिनों से भारत-चीन के बीच सीमा पर बढ़ते तनाव के मद्देनजर इस वर्ष (2017) तीर्थ यात्री नाथू ला होकर कैलाश मानसरोवर नहीं जा सके. आशा करनी चाहिए कि भविष्य में इस रास्ते को सामान्य आवागमन के लिए खोला जाएगा. 



तो अब गाड़ी से उतर कर हम चले वास्तविक भारत –चीन सीमा पर. इसके लिए सीढ़ियों से होकर ऊपर जाना पड़ता है. चूँकि रास्ते में जो हिमपात का सिलसिला शुरू हुआ था वह यहां पहुंचने पर और तेज हो गया था. सो, सीढ़ियां बर्फ से ढंक चुकी थी और  चलना  कठिन हो गया था. तेज हिमपात के कारण तापमान काफी गिर चुका था. ऑक्सीजन की कमी भी महसूस होने लगी थी. बावजूद इसके हमारा  हौसला बुलंद था. हम एक दूसरे का हाथ पकड़े धीरे –धीरे आगे बढ़ने लगे. बर्फ से ढंकी सीढ़ियों पर ऊपर की ओर जाने का यह अनुभव अपूर्व था. थोड़ा आगे बढ़ने  पर सेना के एक जवान ने हमें सुरक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी कुछ हिदायतें दी और हमारी हौसला आफजाई भी की. हमें अच्छा लगा, उत्साह में इजाफा हो गया. घुमावदार  रास्ते से ऊपर जाना था. बच्चे और युवा तेजी से आगे बढ़ रहे थे. बुजुर्ग धीरे-धीरे और रुक-रुक कर. ऑक्सीजन की कमी से दम फूल रहा था. इस रास्ते चलते हुए बेनीपुरी जी की लिखी एक बात याद आ गई – जवानी की राह फिसलनभरी होती है. हालांकि यहां तो बर्फ के रास्ते  फिसलनभरे साबित हो रहे थे. नीचे बर्फ, निरंतर  हिमपात और ऊपर से बहती ठंढी हवा. कुल मिलाकर हाथ-पांव ही नहीं पूरा शरीर ठंड से ठिठुरने लगा. तभी दो कदम ऊपर एक छोटा- सा कमरा  दिखा जहां लोग अंदर-बाहर कर रहे थे. हम लपक कर उस कमरे के अंदर गए. आश्चर्य हुआ. वह एक छोटा रेस्टोरेंट था जहां चाय-कॉफ़ी के अलावे समोसा, बिस्कुट आदि भी बिक रहा था. देख कर हमें बहुत खुशी हुई. उस मौसम में उस ऊंचाई पर यह सब उपलब्ध होना आशातीत था. झट से कॉफ़ी का गर्म गिलास लिया और पहली चुस्की ली. कॉफ़ी अच्छी थी. बेशक स्वाद कुछ अलग सा लगा. पूछने पर पता चला कि यहां याक के दूध का ही प्रयोग होता है. रास्ते में कई स्थानों पर याक दिखाई तो पड़े थे, पर यह मालूम न था कि इस इलाके में याक के दूध ही बहुतायत में उपलब्ध हैं और सामान्यतः उसी का उपयोग किया जाता है. कहा जाता है कि शारीरिक तापमान एवं रक्तचाप को ठीक बनाए रखने में कॉफ़ी बहुत लाभदायक है. 

कॉफ़ी आदि लेने एवं वहां थोड़ी देर रुकने पर शरीर में उर्जा और उत्साह फिर से भर गया और हम निकल पड़े कठिनतर रास्ते से ऊपर पहुंचने को. निकलते ही रास्ते में उक्त रेस्टोरेंट के बगल में एक और कमरा दिखा जिसके बाहर चिकित्सा सुविधा कक्ष लिखा था. वहां सेना के मेडिकल स्टाफ ऑक्सीजन सिलिंडर एवं जरुरी दवाइयों के साथ मुस्तैद थे. हमें  बहुत सकून मिला; हम थोड़ा और आश्वस्त हुए. मन-ही-मन भारतीय सेना के जज्बे को सलाम करते हुए हम आगे बढ़ चले. आगे बढ़ने में दिक्कत तो हो रही थी, परन्तु ऊपर सीमा पर लहराता तिरंगा और उसकी आन-बान-शान को अक्षुण्य बनाये रखने को सर्वदा तत्पर एवं मुस्तैद भारतीय सेना के जवानों को  देखते तथा प्रेरित होते हुए आखिरकार हम पहुंच गए नाथू ला के भारत –चीन सीमा पोस्ट पर. हम सभी बहुत रोमांचित थे. आसपास सिर्फ बर्फ ही बर्फ. दूर जहां तक नजर गई, सभी पहाड़ बर्फ से आच्छादित थे. छोटे-छोटे सफ़ेद-भूरे बादल सर के ऊपर से आ-जा रहे थे. उनके लिए सीमा का बंधन जो नहीं था. इस अभूतपूर्व प्राकृतिक दृश्य के हम भी गवाह बन पाए, इसकी खुशी थी. 

14200 फीट ऊँचे बर्फ से ढंके पहाड़ पर कांटे तार की जाली से सीमा निर्धारित थी. इस पार  हमारे सैनिक गश्त लगा रहे थे तो उस पार चीनी सेना के जवान. वहां तैनात एक-दो जवानों से हमारी थोड़ी बातचीत हुई; देश को सुरक्षित रखने के लिए हमने उनके प्रति आभार व्यक्त किया और उन्हें शुभकामनाएं दी. सच मानिए, वहां खड़े होकर हमारे मन में न जाने कितने अच्छे ख्याल आ रहे थे. मसलन, दुनिया के छोटे-बड़े सभी  देश अगर एक दूसरे की भौगोलिक सीमा का पूरा सम्मान करे तो हर देश के रक्षा बजट में कितनी कमी आ जाय; उन पैसों का इस्तेमाल अगर गरीबी, बीमारी, भूखमारी आदि के उन्मूलन के लिए किया जाय तो विश्व के सारे देश मानव विकास सूचकांक में कितना आगे बढ़ जाएं.... ....

बहरहाल, यथार्थ  में लौटते हुए ध्यान आया कि हमारे गाड़ी के चालक ने घंटे भर के अन्दर लौट आने के लिए कहा था. तो हम लौटने के लिए तत्पर हुए. हिमाच्छादित पहाड़ से नीचे उतरना भी कम जोखिम भरा नहीं होता है. इस अनुभव से हम गुजर रहे थे. हमसे थोड़ा  आगे चलते एक युवा दंपति को अभी-अभी फिसलते एवं चोटिल होते देखा था. वो तो उनके साथ चलते लोगों ने उन्हें बीच में ही सम्हाल लिया, नहीं तो बड़ी क्षति हो सकती थी. खैर, साथी हाथ बढ़ाना की भावना को साकार करते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बहुत धीरे-धीरे हम नीचे तक सुरक्षित आ गए. हमारे सह-यात्री भी आ चुके थे. गाड़ी में बैठे तो शुरू हो गई बातें  सीमा पर  बिताये उन यादगार पलों की. 



ड्राईवर गाड़ी बढ़ा चुका था उल्टी दिशा में यानी गंगटोक की ओर. रास्ते में बाबा मंदिर और सोमगो अर्थात छान्गू झील पर भी तो हमें रुकना था. 

बस दस मिनट में हम आ गए बाबा मंदिर,  बीच में एक स्थान पर रुकते हुए. रुकने का सबब यह था कि सड़क के दोनों ओर पहाड़ की तलहटी तक बर्फ फैला था और हम सबों का मन बच्चों की तरह मचल रहा था, बर्फ से खेलने को; फोटो खिचवाने को. बर्फ की बहुत मोटी परत यहां से वहां सफ़ेद मोटे बिछावन की तरह बिछी हुई थी. अदभुत. 

चारों ओर बर्फ ही बर्फ. हिमपात जारी था, सो बहुत दूर तक साफ़ देखना कठिन हो रहा था. ठंढ भी उतनी ही. खैर, बच्चों और युवाओं ने तो बहुत धमाचौकड़ी और मस्ती की. बर्फ के बॉल बना-बनाकर एक-दूसरे पर निशाना साधा गया. कुछ लोग पहाड़ पर थोड़े ऊपर तक फिसलते हुए चढ़े भी. सेल्फी का दौर भी खूब चला. बड़े –बुजुर्गों ने भी बर्फ पर बैठकर-लेटकर उस पल का आनंद लिया और कुछ फोटो खिंचवाए, कुछ खींचे भी. तभी हमारी नजर भारत तिब्बत सीमा पुलिस के एक बोर्ड पर पड़ी. लिखा था, “ ताकत वतन की हमसे है, हिम्मत वतन की हमसे है....” सच ही लिखा है. ऐसे कठिन परिस्थिति में अहर्निश देश सेवा वाकई काबिले तारीफ़ है. 



इधर, सड़क किनारे खड़ी गाड़ी में बैठे ड्राईवर हॉर्न बजा-बजा कर हमें जल्दी लौटने का रिमाइंडर देते रहे. सो इन अप्रतिम दृश्यों को आँखों और कैमरे में समेटे हम लौट आये.  

बाबा मंदिर के पास पार्किंग स्थल पर बड़ी संख्या में सुस्ताते गाड़ियों को देखकर अंदाजा लग गया था कि मंदिर में काफी भीड़ होगी. अब हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में आ गए थे. यहां तीन कमरों के समूह में बीच वाले हिस्से में बाबा हरभजन सिंह के मूर्ति स्थापित है और सामने दीवार पर उनका एक फोटो भी लगा है. बगल के एक कमरे में उनसे जुड़ी सामग्री मसलन उनकी वर्दी, कुरता, जूते, बिछावन आदि बहुत तरतीब से रखे गए हैं. पर्यटक और श्रद्धालु  उन्हें श्रद्धा  सुमन अर्पित कर निकल रहे थे. 

वहां से बाहर आते ही हमें सामने पहाड़ के बीचोबीच  शिव जी की एक बड़ी सी सफ़ेद मूर्ति दिखाई दी. दूर से भी बहुत आकर्षक लग रहा था. कुछ लोग पहाड़ी रास्ते से वहां भी पहुंच रहे थे. समयाभाव के कारण हम वहां न जा सके. हमें ड्राईवर दिलीप ने बताया कि सामान्यतः वैसे पर्यटक जिन्हें सिर्फ बाबा मंदिर तक आने का ही परमिट मिलता है, उनके पास थोड़ा ज्यादा वक्त होता है और उनमें से ही कुछ लोग ऊपर शिव जी की मूर्ति तक जाते हैं.

वहां से लौटते हुए भी कई स्थानों पर रुकने की इच्छा हो रही थी, लेकिन ड्राईवर ने यह कह कर मना  किया कि आगे सोमगो अर्थात छान्गू झील पर ज्यादा वक्त गुजारना  बेहतर होगा. सही कहा था उसने.  ऐसा सोमगो अर्थात छान्गू झील पहुंचने पर हमें लगने लगा.

ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच में मुख्य सड़क के बिलकुल बगल में है यह लम्बा खूबसूरत  झील. गाड़ी रुकते ही हम उतर कर झील के किनारे पहुंच गए. तुरत ही सामने से बड़ा- सा काला-सफ़ेद याक आ पहुंचा. याक की आंखें कुछ बोल रही थी, शायद यह कि यहां आये हैं तो मेरी सवारी का भी आनन्द ले लीजिए, अच्छा लगेगा आपको और मुझे भी. मेरा मालिक भी खुश होगा और आपके  जाने के बाद मुझे सहलायेगा, प्यार से खिलायेगा .... हमारे मालिक के लिए यह आमदनी का छोटा जरिया है, क्यों कि साल के कुछ ही महीने आप जैसे पर्यटक आ पाते हैं यहाँ... कहते हैं, बच्चे भगवान का रूप होते हैं, मन की बात खूब समझते हैं. याक भी कैसे अपनी भावना उनसे छुपा पाता. तो बच्चे याक की सवारी के लिए मचलने लगे. युवा और महिलायें भी साथ हो लिए. एक-एक कर सब सवारी का मजा ले रहे थे. फोटो सेशन भी हुआ. सेल्फी का दौर तो चलना ही था. बताते चलें कि याक के सींगों को कलात्मक ढंग से रंगीन कपड़ों से सजाया गया था. उसके पीठ पर रखा हुआ गद्दा भी सुन्दर लग रहा था.



दिन ढल रहा था, पहाड़ों पर फैले बर्फ की चादरों का रंग बदलता जा रहा था, गंगटोक लौटने वाली गाड़ियां लम्बी कतार में खड़ी थीं, ठंढ से ठिठुरते लोगों की भीड़ चाय-काफी की दुकानों में लगी थी, बच्चे दोबारा याक की सवारी की जिद कर रहे थे... सच कहें तो मनोरम दृश्य के बीच ये सारी बातें फील गुड, फील हैप्पी का एहसास करवा रही थी. अंधेरा होने से पहले गंगटोक पहुंचने की बाध्यता नहीं होती तो किसे लौटने की जल्दी होती ! खैर, गाड़ी में आ बैठे हम मन-ही-मन यह दोहराते हुए : जल्दी ही आऊंगा फिर एक बार, देखेंगे-सीखेंगे और भी बहुत कुछ, करेंगे हर किसी से बातें भी दो-चार... …                 ( hellomilansinha@gmail.com)                                                                                        फिर मिलेंगे, बातें करेंगे - खुले मन से ... ...
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित