Tuesday, December 18, 2018

यात्रा के रंग अनेक : श्री जगन्नाथ मंदिर और आसपास

                                                                                        - मिलन सिन्हा 
पुरी में सागर तट के पास स्थित अपने होटल में सुबह-सुबह स्नानादि से निवृत होकर हम चल पड़े विश्व प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर की ओर. यहां से मंदिर जाने के एकाधिक मार्ग हैं. हमने गलियों से गुजरते रास्ते  को चुना जिससे वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की कुछ झलक मिल सके. गलियां आवासीय मकानों के बीच से होती हुई निकलती हैं. कस्बाई रहन-सहन. लोग सीधे-सादे. आपस में सटे-सटे ज्यादातर एक मंजिला- दो मंजिला मकान. कुछेक घरों में सामने के एक-दो कमरों में चलते दुकान. इन दुकानों में आम जरुरत की चीजें सुलभ हैं. यहाँ के निवासियों के अलावे सामान्यतः ऐसे गलियों का इस्तेमाल मंदिर तक पैदल आने-जाने वाले भक्तगण करते हैं. गलियों में टीका-चंदन लगाये खाली पैर चलते अनेक लोग दिखते हैं. स्थानीय उड़िया भाषा के अलावे पुरी के आम लोग हिन्दी और बांग्ला भाषा समझ लेते हैं, कई लोग बोल भी लेते हैं. 

मंदिर के आसपास फैले बाजार में पूजा-अर्चना की सामग्री से लेकर पीतल-तांबा-एलुमिनियम-लोहा-चांदी आदि के बर्तन व सजावट की वस्तुएं फुटपाथ तथा बड़े दुकानों में मिलती हैं. हैंडलूम के कपड़े एवं पोशाक का एक बड़ा बाजार है पुरी. यहां की बोमकई, संबलपुर एवं कटकी साडियां महिला पर्यटकों को काफी पसंद आती हैं. इसके अलावे हेंडीक्राफ्ट के कई अच्छे कलेक्शन भी उपलब्ध हैं. सुबह से रात तक यहाँ बहुत चहल-पहल रहती है. पर्व -त्यौहार  के अवसर पर तो यहाँ बहुत भीड़ और चहल-पहल  होना स्वभाविक है. मंदिर  के सामने यातायात को कंट्रोल करते कई पुलिसवाले हैं. यहां-वहां चौपाया पशु भी दिखते हैं.

बताते चलें कि पुरी में दूध से बनी मिठाइयों की क्वालिटी बहुत अच्छी है और ये सस्ती भी हैं. इससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पुरी और उसके आसपास दूध प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है. हो भी क्यों नहीं, हमारे श्री जगन्नाथ अर्थात श्री कृष्ण अर्थात श्री गोपाल को दूध, दही, मक्खन इतना पसंद जो रहा है. फिर, उनके असंख्य भक्तों के पीछे रहने का सवाल कहां. हाँ, एक बात और. मौका  मिले तो राबड़ी, रसगुल्ला व दही का स्वाद जरुर लें. मंदिर के आसपास इनकी कई दुकानें हैं.  

करीब चार लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैले श्री जगन्नाथ मंदिर परिसर में प्रवेश के लिए सुरक्षा के मानदंडों का पालन अनिवार्य है. मोबाइल, कैमरा आदि बाहर बने काउंटर पर जमा करके ही अन्दर जाने की अनुमति है. मंदिर में प्रवेश के लिए चार द्वार हैं. पूर्व दिशा में स्थित है सिंह द्वार, जिसे मंदिर का मुख्य द्वार भी कहते हैं. पश्चिम द्वार को बाघ द्वार, उत्तर को हाथी द्वार और दक्षिण ओर स्थित द्वार को अश्व द्वार कहा जाता है.
    
हमें पुरी के “श्री जगन्नाथ मंदिर” में प्रवेश करते ही एक पंडा जी मिल गए, जो हमें मंदिर के सभी महत्वपूर्ण भागों में न केवल ले गए, बल्कि उसके धार्मिक-आध्यात्मिक पृष्ठभूमि की जानकारी दी. ज्ञातव्य है कि मुख्य मंदिर के आसपास तीस छोटे-बड़े मंदिर भी स्थित हैं. श्री जगन्नाथ मंदिर काम्प्लेक्स में ही माँ लक्ष्मी का भी मंदिर है, जहां जगन्नाथ जी के दर्शन के बाद जाने की परंपरा है.  

कहा जाता है कि चार धामों में शुमार “श्री जगन्नाथ मंदिर” की अनेक विशेषताएं हैं, जिनके विषय में जानकर अचरज में पड़ जाना अस्वाभाविक नहीं है. मसलन, मंदिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है; इस विशाल रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोइए एवं उनके 300 सहयोगी एकसाथ काम करते हैं; मिट्टी के बर्तनों में सारा खाना पकाया जाता है; रसोईघर  में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के सात बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं तथा  इंधन के रूप में लकड़ी का ही इस्तेमाल किया जाता है;  दिन के किसी भी वक्त मंदिर के मुख्य गुंबद की छाया अदृश्य ही रहती है; पुरी शहर के किसी भी भाग से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखें तो यह चक्र आपको हमेशा सामने से ही लगा हुआ दिखाई पड़ेगा; 214 फुट ऊँचे इस मंदिर के ऊपरी हिस्से में दिखने वाला ध्वज हमेशा हवा के विपरीत दिशा में लहराता रहता है आदि.

जानने योग्य बात यह भी है कि अष्टधातु से निर्मित सुदर्शन चक्र को, जिसकी परिधि करीब 36 फुट है, नीलचक्र भी कहा जाता है एवं इसे बहुत ही पवित्र -पावन माना जाता है. ऐसी और भी अनेक ज्ञानवर्द्धक  बातें इस मंदिर के साथ जुड़ी है.

मंदिर के गर्भ गृह में एक रत्न मंडित चबूतरे पर भगवान जगन्नाथ के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियां विराजमान हैं. ये तीनों मूर्तियां लकड़ी से बनी हैं, जिन्हें अनुष्ठानपूर्वक बारह वर्षों में एक बार बदला जाता है. 

मंदिर के शिखर पर लहराते ध्वज को बदलने का कठिन काम प्रतिदिन अपराह्न काल में करीब चार बजे के आसपास, यानी सूर्यास्त से पहले, किया जाता है. मंदिर के शिखर पर स्थित सुदर्शन चक्र के ऊपर सूर्य और चन्द्र अंकित लगभग 25 फुट लम्बा लाल या पीला एक बड़ा ध्वज लगाया जाता है, जो करीब 12 फुट ऊँचे सुदर्शन  चक्र से करीब 25 फुट और ऊपर सदैव लहराता रहता है. नील चक्र से नीचे की ओर अन्य अनेक छोटे –बड़े ध्वज लटकते –लहराते रहते हैं. सभी ध्वजों को रोज बदला जाता है. सौभाग्य से हमें इस पूरी प्रक्रिया को संपन्न होते हुए देखने का मौका मिला. हमारे तरह हजारों लोग इस रोमांचक दृश्य को देखने वहां मौजूद थे. कहते हैं, ऐसी भीड़ वहां उस वक्त हर रोज देखी जा सकती है. वाकई, इतनी ऊंचाई पर इतने ध्वजों को लेकर चढ़ना-उतरना, उन्हें उतारना–नए ध्वज लगाना,  बहुत ही जोखिम का काम है, तथापि इस कार्य को बड़ी कुशलता से मंदिर द्वारा अधिकृत दो व्यक्ति रोजाना नियमपूर्वक  करते हैं. मंदिर परिसर में ही “श्री जगन्नाथ जी” का प्रसाद प्राप्त करने की सुविधाजनक व्यवस्था कायम है.
                                                                                             
 पुरी में रथयात्रा सबसे बड़े  उत्सव के रूप में मनाया जाता है. नौ दिनों तक चलनेवाले इस अदभुत धार्मिक-आध्यात्मिक त्यौहार में स्थानीय लोगों के अलावे देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पूरे आस्था और उत्साह से शरीक होते हैं. इस मौके पर श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र और देवी सुभद्रा को लाखों श्रद्धालु इतने नजदीक से देख पाते हैं. रथयात्रा उत्सव आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को शुरू होता है. इस दिन अलग-अलग रथों में श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा को पूरे विधि –विधान से बिठाया जाता है और फिर  बड़ी संख्या में भक्तगण रथों को खींच कर दो किलोमीटर दूर गुंडिचा मन्दिर तक ले जाते हैं.

गुंडिचा मन्दिर बहुत ही खूबसूरत है जिसका निर्माण कलिंग वास्तुकला पर आधारित है. यह मंदिर श्री जगन्नाथ के मौसी घर के रूप में भी प्रसिद्ध है. श्री जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मन्दिर तक की सड़क बहुत ही चौड़ी और अच्छी है. सही है क्यों कि 60 फुट से ज्यादा चौड़े और 40 फुट से ज्यादा ऊँचे तीन रथों के साथ चलनेवाले लाखों श्रद्धालुओं के लिए ऐसी व्यवस्था अनिवार्य है. लकड़ी से बने रथों को तैयार करने का काम हफ़्तों चलता है और फिर अंत में तीनों रथों को अत्यन्त कलात्मक ढंग से सजाया जाता है. इस यात्रा में सबसे आगे श्री बलभद्र का ताल ध्वज रथ, बीच में देवी सुभद्रा का पद्म ध्वज रथ और उसके पीछे श्री जगन्नाथ का गरुड़ ध्वज रथ रहता है. एकादशी को वापसी यात्रा यानी बहुडा के बाद तीनों प्रतिमाओं को जगन्नाथ मंदिर के गर्भ गृह में आस्था और भक्तिभाव से फिर से स्थापित किया जाता है. हर साल इसी समय यह  कार्य पूरे धूमधाम से संपन्न होता है. ऐसे अब तो देश-विदेश में अनेक स्थानों में इसी समय रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है. 

पुरी में श्री जगन्नाथ मंदिर और समुद्र तट श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए सबसे बड़े आकर्षण के केन्द्र रहे हैं, तथापि कई अन्य दर्शनीय स्थल भी हैं जहाँ सालों भर पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है. श्री लोकनाथ मंदिर इनमें से एक है.  यह श्री जगन्नाथ मंदिर से करीब तीन किलोमीटर है. यह पुरी का सबसे पुराना मंदिर है जहाँ श्री लोक नाथ जी के नाम से भगवान शंकर की पूजा-अर्चना की जाती है. शिव रात्रि के मौके पर तो प्रत्येक वर्ष  यहां एक बड़ा मेला भी लगता है. 


नरेन्द्र या चंदन तालाब भी काफी खूबसूरत और लोकप्रिय पर्यटक स्थल है. यह स्थान श्री जगन्नाथ मंदिर से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है. हर वर्ष अक्षय तृतीया से 21 दिनों तक यहां  श्री जगन्नाथ का जल विहार उत्सव मनाया जाता है. यह तालाब 873 फुट लम्बा और 834 फुट चौड़ा है. यह स्थान श्री जगन्नाथ के बुआ के घर के रूप में भी जाना जाता है. इस परिसर में छोटे-छोटे कई मंदिर हैं जिनमें देवी –देवताओं की प्रतिमाएं विराजमान हैं. आपके पास समय हो तो आप बेदी हनुमान मंदिर, सुदर्शन क्राफ्ट म्यूजियम और श्री सोनार गौरांग मंदिर भी जा सकते हैं. 

अंत में एक और बात. पुरी में घूमते हुए हमें बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटर या मॉल दिखाई नहीं पड़े. सांस्कृतिक, पारम्परिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जड़ें आज भी ज्यादा मजबूत हैं यहां, ऐसा स्पष्ट जान पड़ता है.
                                           (hellomilansinha@gmail.com)
                             फिर मिलेंगे, बातें करेंगे - खुले मन से ... ...
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित
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Tuesday, December 4, 2018

यात्रा के रंग अनेक : पुरी-जगन्नाथधाम और सागर विशाल

                                                                                                  -मिलन सिन्हा 
ट्रेन नियत समय के आसपास ही पुरी के तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ कर रुक गई. कई प्लेटफार्मों वाला पुरी रेलवे स्टेशन साफ़-सुथरा था.  इस दिशा का अंतिम स्टेशन होने के कारण डिब्बे खाली होने लगे और प्लेटफॉर्म पर यात्रियों का बहिर्गमन. आबोहवा में आद्रता की अनुभूति होने लगी. ट्रेन में हमारा डिब्बा पीछे होने के कारण निकास द्वार तक काफी चलना पड़ा, अपना-अपना ट्राली सूटकेस लेकर. ट्रेन के सहयात्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक ही सही, चलना अच्छा लगा. जाति, धर्म, भाषा, जिला-प्रदेश, गरीब-अमीर आदि भावनाओं से इतर सिर्फ मानवता का भाव लिए सभी इस यात्रा के अंत में अपने-अपने  गंतव्य की ओर अग्रसर थे. 

प्लेटफॉर्म से ही ऑटोवाले हमें हमारे रुकने के स्थान तक पहुँचाने के लिए तत्पर दिखे. एक–दो तो निकास द्वार तक आ गए – रेट वगैरह में कमीवेशी के बदलते ऑफर के साथ. बाहर निकला तो और अच्छा लगा. स्टेशन परिसर बहुत बड़ा और अपेक्षाकृत व्यवस्थित एवं साफ़–सुथरा. कुछ और सोचता, तबतक दो-एक रिक्शेवाले ने भी साथ चलने का आग्रह किया. एक क्षण तो ऐसा लगा कि हमें होटल तक पहुंचाने के चक्कर में रिक्शेवाले और ऑटोवाले के बीच झगड़ा न हो जाए. खैर, बात वहां तक पहुंचने से पहले ही ऑटोवाले को दूसरी सवारी मिल गयी और वह उधर लपका. हमें भी दूसरा ऑटोवाला मिल गया. इस सबके बीच मेहनत करके अपना पेट पालने को तत्पर कई लोगों से हमें फिर दो-चार होने का मौका मिला; अपने देश में कितनी बेरोजगारी है, इसका प्रमाण भी.

पुरी स्टेशन से निकलकर होटल के रास्ते हम बढ़ चले. इसी क्रम में पुरी का आकाशवाणी केन्द्र दिखा. इसी रास्ते में  दिखा राजभवन का पुरी परिसर एवं दो सरकारी गेस्ट हाउस. ऑटोवाले ने बताया कि ये सभी बड़े परिसर समुद्र तट पर स्थित हैं. तुरत यह ख्याल आया कि ब्रिटिश राज ख़त्म होने के सात दशक बाद भी जनता के प्रतिनिधि के रूप में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों के लिए हर बड़े शहर में एक अलग आलीशान व सुसज्जित परिसर की जरुरत क्यों है ? लोकतंत्र में ऐसे आडम्बर और विलासिता के प्रतीक जिनके रख-रखाव पर हर साल आम जनता के टैक्स का लाखों का खर्च होता है, के स्थान पर करोड़ों गरीब-वंचितों के मुफ्त इलाज के लिए एक अच्छा अस्पताल खोला जा सकता है, अनाथ और अशक्त बच्चों के मुफ्त शिक्षा के लिए एक अच्छा स्कूल खोला जा सकता है या फिर जन कल्याण के ऐसे ही कई अन्य काम किये जा सकते हैं. इसी सोच-विचार में न जाने कब हम पुरी में समुद्र तट के निकट अवस्थित अपने होटल के पास पहुंच गए. 

होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रहा था कि ऐसी किसी भी यात्रा के दौरान अनायास ही हम-आप आशा-अपेक्षा, करुणा-प्रेरणा, हास-परिहास, सीखने-बताने, देखने-दिखाने, सोचने-विचारने सहित जीवन के  विविध रंग-बिरंगे अनुभवों-अनुभूतियों  से हो कर गुजरते रहते हैं. जीवन को जीवंत और समाजोपयोगी बनाए रखने में इसकी बड़ी भूमिका भी तो होती है! 
                                                                                                  
थोड़ा फ्रेश होकर हम सागर तट के पास स्थित अपने होटल से निकल पड़े. दो-तीन मिनट में हम समुद्र तट पर थे. पुरी के समुद्र की बात ही कुछ अलग है. साफ़ पानी, दूर तक फैला समुद्र, उसके साफ़ –सुथरे तट और उसके सामान्तर चलते मुख्य सड़क से सटे कतार में एक के बाद दूसरे होटल की लम्बी कड़ी. उत्तर भारत में जब अक्टूबर से फरवरी तक ठंढ से लोग ठिठुरते रहते हैं, तब पुरी में पर्यटकों की बहुत भीड़ होती है. कारण यहाँ मौसम बहुत सुहाना होता है – न ज्यादा गर्मी और न ज्यादा ठण्ड. सागर तट पर तो मेले जैसा माहौल रहता है. आज भी वहां वही हाल था. कुछ बच्चे और युवा तटीय रेत पर कुछ-कुछ खेल रहे थे तो कुछ घोड़े और ऊंट की सवारी का मजा ले रहे थे. तट पर हर तरह की खाने-पीने की चीज बिक रही थी - गोलगप्पे, चाट, भुट्टे, आलू चिप्स, हर तरह के मौसमी फल और तरह-तरह की मिठाइयाँ. मदन मोहन नाम से एक मिठाई भी थी. सुनकर चौंका. हिन्दी सिनेमा के प्रख्यात संगीतकार मदन मोहन के सुरीले संगीत से सजे गाने याद आ गए. मिठाईवाला आवाज लगाते आगे बढ़ गया था. झटक के उसके पास गया और छेने की रसदार मिठाई मदन मोहन का आनन्द उठाया. वाकई नाम के अनुरूप स्वादिष्ट.

तट पर घूमते हुए हमने देखा कि कहीं  मोतियों के हार बिक रहे थे तो कहीं भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं देवी सुभद्रा के तरह-तरह के आकर्षक फोटो, छोटे-बड़े शंख, सीप से बनी चीजें आदि. रोचक बात है कि सागर तट के आसपास घूम-घूमकर मोती और मोती के हार आदि बेचनेवाले ज्यादातर लोग ओड़िशा के सीमा से लगे आंध्र प्रदेश के रहनेवाले हैं. उनसे बात करने पर पता चला कि समुद्र में पाए जाने वाले सीप से निकाले गये प्राकृतिक मोती के अलावे कृत्रिम मोती के व्यवसाय में ये लोग सालों से लगे हुए हैं. सागर तट पर टहलते-घूमते लोगों में बीच-बीच में यहां-वहां हलचल होते रहते हैं और आप लोगों को छोटे-छोटे झुण्ड में देख सकते हैं. दरअसल, जब भी कोई नाव समुद्र से तट पर आता है, तो साथ में जाल में फंसी मछली आदि के अलावे छोटे-बड़े सीप भी होते हैं, जिनमें प्राकृतिक मोती होने की बात नाविक-मछुआरे करते रहते हैं. ऐसे मोती को देखने और खरीदने की चाह में हलचल होती है, पर्यटकों की भीड़ लगती है. जानकार कहते हैं कि बिना जांचे-परखे सिर्फ जल्दबाजी में ऐसी खरीदारी घाटे का सौदा भी साबित हो सकता है. 


पुरी के समुद्र तट के सामान्तर मुख्य सड़क के फुटपाथ पर सुबह-शाम अनेक लोगों को टहलते-दौड़ते देखना अच्छा लगता है. यह सड़क आगे करीब तीन किलोमीटर तक वैसी ही खूबसूरत है. आगे एक लाइट हाउस भी है. आसपास की गलियों  में पर्यटकों को सहज आकर्षित करने वाली चीजों की स्थायी दुकानें भी हैं.
                                                                   
पुरी के समुद्र में स्नान करनेवाले और तैरते–खेलते हर उम्र के लोग बड़ी संख्या में आपको मिल जायेंगे –पूरे उत्साह, उर्जा और उमंग से लबरेज. ऐसे कार्यकलाप में शामिल युवाओं का छोटा-बड़ा ग्रुप भी आपको यहां-वहां दिख जायेंगे. स्नानादि करते वक्त कोई दुर्घटना न हो जाए, इसके लिए इहतियाती  इंतजाम के तहत समुद्र तट के पास ही विभिन्न स्थानों पर गोताखोर तथा सुरक्षाकर्मी मौजूद दिखे.

समुद्र किनारे बैठ कर सूर्योदय और सूर्यास्त का आनंद उठाना हर कोई चाहता है. प्रकृति का यह अप्रतिम सौन्दर्य आपको अंदर तक आनन्दित कर देता है, आपकी यादों में वर्षों तक रचा-बसा रहता है. ऐसे, सागर तट पर सैकड़ों लोग भी मिलेंगे जो घंटों रंग-बिरंगे छतरियों के नीचे कुर्सी या रेत पर बैठे  चाय, कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिंक, गन्ने का रस, डाब आदि का सेवन करते और समुद्र की लहरों का आनन्द लेते रहते हैं. शायद उनके यहां  आने और आनंद के सागर में डुबकी लगाने के पीछे छुपी प्रेरणा या भावना को स्वर देने के लिए  पास ही में एक  झालमूढ़ी बेचने वाले के मोबाइल (एफएम ) पर यह गाना बज रहा था,  'दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन ....' 

कहने की जरुरत नहीं कि सुबह और शाम के वक्त सागर तट पर भीड़ ज्यादा होती है और चहल-पहल  भी. संध्या समय गर्मागर्म समोसे, आलू चाप, पकौड़ी आदि के साथ चाय-काफी का आनन्द उठाते पर्यटकों के झुण्ड छोटे-छोटे दुकानों के पास देखे जा सकते हैं. तट पर और उसके आसपास भी सफाई व्यवस्था को अच्छा बानाए रखने के लिए सफाई कर्मी तत्परता से लगे दिखाई पड़ते हैं. 

सागर तट पर घूमने के क्रम में सौभाग्य से हमें दिखे रेत पर रेत से अपनी कला का प्रदर्शन करते कई आर्टिस्ट. ऐसे तो इस कला की बात चलते ही विश्व प्रसिद्ध कलाकार सुदर्शन पटनायक का नाम सबसे ऊपर आता है जिनकी बनाई कलाकृतियों को आप पुरी के समुद्र तट पर बहुधा देख सकते हैं. लेकिन उनके अलावे भी कई लोग हैं जो नियमित रूप से अपने इस कला कर्म में तन्मयता से लगे दिख जाते हैं. दिलचस्प बात यह कि ये कलाकार रेत अर्थात बालू  पर कई घंटों के मेहनत से किसी कलाकृति का निर्माण करते हैं, जो महज कुछ घंटों तक ही प्रदर्शित हो पाता है. जानकर अच्छा लगा कि  हर साल नवम्बर के शुरू में पुरी समुद्र तट महोत्सव (पुरी बीच फेस्टिवल) बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इसमें रेत कलाकार भी बढ़–चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. दरअसल इस फेस्टिवल में ओड़िशा की वास्तुकला, चित्रकला, व्यंजनकला आदि के साथ-साथ सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े रंग-बिरंगे कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जो स्थानीय लोगों के अलावे पर्यटकों को भी पसंद आते हैं.   .... आगे जारी ....
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