Tuesday, February 20, 2018

यात्रा के रंग अनेक : कोलकाता, सिलीगुड़ी और कलिंपोंग के रास्ते गंगटोक

                                                                              - मिलन सिन्हा
 
                                                                 
कहते हैं यात्रा में जाने का एक अलग रोमांच होता है; और यात्रा में जिज्ञासा का साथ हो, फिर तो अनेक अदभुत अनुभव व जानकारी हमें स्वतः मिलना लाजिमी है. चलते-चलाते हमें कितने ही ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिलता है; प्रकृति के कितने ही  अनजाने, अप्रतिम रूपों से रूबरू होने का सौभाग्य मिलता है, इसका पूर्वानुमान शायद ही कोई लगा सकता है. लेकिन, न जाने क्यों और कैसे इस बार मेरे साथ यात्रा आरम्भ करने के साथ ही ये सब घटित होने लगा. निदा फाजली साहब ने यूँ ही तो नहीं लिखा :

धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो 
जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो .

एक लम्बे अंतराल के पश्चात्  रात में ट्रेन से यात्रा का योग बना. 'क्रिया योग एक्सप्रेस' चल पड़ी नियत समय पर रांची से हावड़ा (कोलकाता) की ओर. आरक्षित डिब्बे में यात्री अपने–अपने बर्थ पर जमने लगे. हमारे डिब्बे में 30-40 वर्ष के लोगों का एक ग्रुप चल रहा  था, जिनमें से दो सदस्यों का बर्थ हमारे आसपास था. उनके दो और साथी आ गए और उनके बीच रांची प्रवास की चर्चा चल पड़ी. बातों से पता चला कि वे लोग, जिनमें कुछ महिलायें भी थी, एक सामाजिक समारोह में आये थे और अब कोलकाता लौट रहे थे. चर्चा के दौरान यह भी बात आई कि अगले कुछ दिनों में इस ग्रुप का रायपुर, गौहाटी आदि स्थानों में जाने का प्रोग्राम है. उनके बीच की प्रगाढ़ता और आसन्न प्रोग्राम के प्रति उनके उत्साह को देखते हुए उत्सुकतावश मैंने पूछा तो बगल में बैठे महेश जी ने बताया कि वे लोग राजस्थान के लक्ष्मणगढ़ के मूल निवासी हैं और अब कोलकाता में रहकर व्यवसाय आदि में सक्रिय हैं.  वे 'लक्ष्मणगढ़  नागरिक परिषद् ' के सक्रिय सदस्य है, जिसकी स्थापना 1987 में हुई और जिसका एक बड़ा मकसद लक्ष्मणगढ़ के प्रवासी लोगों को एक मंच पर लाना है तथा अपने सामाजिक कार्यों का विस्तार करना है. उन्होंने बताया कि उनके दो दिनों के प्रवास में उनको रांची में रहनेवाले करीब एक सौ परिवारों से जुड़ने का अवसर मिला. सच मानिए, उनसे बातचीत  करते हुए मुझे अच्छा लग रहा था, क्यों कि समाज  में एकजुटता और भाईचारे को बढ़ाने का उनके इस प्रयास से मैं प्रभावित था. 

ट्रेन रफ़्तार में थी. घड़ी की सुई भी अपने रफ़्तार पर. आसपास के लोग सोने लगे, एक –दो लोगों ने बत्ती  बुझाने का आग्रह भी किया. लिहाजा,  बातचीत को विराम लगा. 

सुबह आंख खुली तो ट्रेन तेज गति से गंतव्य की ओर भागी जा रही थी और पीछे छूटते जा रहे थे हरे–भरे गांव, जहां पानी की कोई किल्लत नहीं दिखी. दस-बीस घर के साथ एक पोखर दिख जाता और दिख जाते उनमें तैरते बत्तख; उसके किनारे कुछेक पेड़-पौधे. जल संचयन -संग्रहण एवं पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने का कारगर पारम्परिक उपाय. जानकार कहते हैं कि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में आपको आम तौर पर ऐसे दृश्य दिखेंगे. 

हावड़ा स्टेशन आने से पूर्व रेल पटरी के दोनों ओर  गन्दगी का दीदार करते हुए हम स्टेशन पर समय से पहुंच गए. हाँ, ट्रेन के एसी -3 बोगी के रख-रखाव में कुछेक कमियों के अलावे कोई बड़ी असुविधा नहीं हुई. हावड़ा स्टेशन के प्लेटफार्मों की मरम्मत की जरुरत महसूस हुई. हजारों यात्री रोज इन प्लेटफार्मों से होकर गुजरते हैं; छोटी परेशानी कब बड़ी दुर्धटना का सबब बन जाय, किसे पता. बहरहाल, वर्तमान रेल मंत्री के सत्प्रयासों का असर तो कई मामलों में दिखा, आगे और दिखेगा इसकी उम्मीद है. ऐसे भी, इतने सालों में लगे मजबूत जंग से जंग के स्तर पर निबटना पड़ेगा, मंत्री  जी. 

हावड़ा स्टेशन से बाहर निकलने पर देखा कि टैक्सी की प्री –पेड लाइन बहुत लम्बी थी, सुबह का वक्त जो था. ठहरने के स्थान पर जल्दी पहुंचने के दवाब में आरा (बिहार) निवासी  एक टैक्सी चालक की चालाकी का शिकार हुआ, जिसका सही –सही पता तब चला जब वह दोगुना किराया लेकर जा चुका था. दुःख कम था ये सोच कर कि चलो घी गिरा तो दाल में ही. नहीं समझे ? चलिए, कोई बात नहीं. हाँ, संतोष इस बात का था कि यादवपुर में रवि शंकर के आवास पर समय से ही पहुंच गया था, क्यों कि अगले दो घंटे में आगे की यात्रा के लिए कोलकाता एयरपोर्ट नियत समय से पहले पहुंचना था. जानकार कहते हैं कि कोलकाता में कब कहाँ जाम लग जाय, इसका पूर्वानुमान कोई नहीं लगा सकता. लिहाजा, थोड़ा फ्रेश होकर और रवि के परिवार वालों के साथ सुबह का क्वालिटी टाइम बिता कर निकल पड़ा एयरपोर्ट की ओर.


हाँ, अब भी टैक्सी के रूप में एम्बेसडर कार ही कोलकाता की पहचान है. पुरानी  डीजल एम्बेसडर गाड़ियाँ 30-35 किलोमीटर की रफ़्तार से  चली जा रही थी, भरपूर धुआं छोड़ते हुए. उमस, गर्मी एवं वायु प्रदूषण से हाल बेहाल था. आधुनिकता के जाने-पहचाने दुष्प्रभावों से यह महानगर भी जूझने को अभिशप्त. चौड़ी सड़क के दोनों ओर वही बेतरतीब कस्बानुमा रहन-सहन; बड़ी इमारत और झुग्गी झोपड़ी का साथ भी कहीं- कहीं. यह सब देखते –समझते आखिर पहुंच गए कोलकाता के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर. यहाँ का नजारा बिलकुल ही अलग, शाइनिंग इंडिया....                                                                        

                                                                                                    
कोलकाता से करीब एक घंटे की हवाई यात्रा के बाद पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग सिलीगुड़ी के बागडोगरा एयरपोर्ट से बाहर निकला, तो बेहतर लगा –कारण उमस, गर्मी  और प्रदूषण कम था, कोलकाता की तुलना में. यहाँ का एयरपोर्ट छोटा है, लेकिन जानकार बताते हैं कि सैन्य दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण है. हो भी क्यों नहीं. सिलीगुड़ी  उत्तर पूर्व का गेट-वे जो रहा है. लिहाजा, इस एयरपोर्ट का विस्तार करके इसे बड़ा बनाया जाना चाहिए, जिससे सैन्य सुरक्षा के अलावे पर्यटन और व्यवसाय में बेहतरी दर्ज हो और पश्चिम बंगाल के इस महत्वपूर्ण भाग के लोगों के साथ -साथ उत्तर –पूर्व के प्रदेशों के आम जन को भी इसका ज्यादा-से-ज्यादा लाभ मिल सके.


बागडोगरा एयरपोर्ट से निकलते ही दायीं ओर चाय बागान दिख गया और झट लगने लगा ऐसा कि चाय का कैफीन असर करने लगा, कारण मन –मानस उत्साह और उमंग से अनायास ही जैसे भरने लगा. हरियाली से मन प्रसन्न हो गया. चालक ने कार को चौड़े से बायपास रोड पर डाल दिया. कार की रफ़्तार तेज हो गयी. थोड़ी ही देर में शहर के  भीड़-भाड़, धूल व स्वभाविक रूप से जहाँ-तहां फैले गंदगी को पीछे छोड़ते हुए हम पहाड़  पर चढ़ने  लगे और साथ ही गर्मी के इस मौसम में धीरे –धीरे ठण्ड का सुखद अनुभव करने लगे. एक बात और. पहाड़ों के बीच से तेज रफ़्तार में  बहती-हंसती–कलकलाती प्रसिद्ध ‘तीस्ता’ नदी को उसके किनारे –किनारे चलती गाड़ी में से देखते जाना हमारे लिए एक अपूर्व अनुभव  था. 

शाम होने से पहले पं. बंगाल के एक दर्शनीय पर्वतीय स्थल ‘कलिंपोंग’ पहुंचना था. देर हो रही थी, क्यों कि पहाड़ी सड़क कई जगह ख़राब हालत में थे; धूल उड़ रहे थे. लगा ऐसा कि कई दिनों से ऐसा ही आलम था. कोई वैकल्पिक मार्ग शायद न हो, सो गाड़ियों को रुकते, रेंगते, धूल उड़ाते आगे बढ़ना था. यात्रा में ऐसे व्यवधान आनंद में खलल डालते तो हैं ही. हाँ, एक अनुरोध  ममता दीदी ( मुख्य मंत्री, पं .बंगाल) से. वे सड़क मार्ग से इस क्षेत्र का औचक दौरा-निरीक्षण करें. खुद देखेंगी, तो कुछ तो अच्छा हो ही जाएगा. क्यों ? बहरहाल हम सूर्यास्त से पहले कलिंपोंग पहुंच गए. इस बीच हाफ स्वेटर  निकल चुका था.


मुख्य चौक के बिलकुल पास ही रुकने की व्यवस्था थी. अभी अँधेरा नहीं हुआ था. जल्दी से सामान रखकर निकल आया बाहर. दूर –दूर तक पहाड़ और हरियाली. ठंडी हवा चल रही थी. चाय की तलब और फैलते अँधेरे ने बाजार की ओर रुख करने को कहा. बाजार छोटा-सा; सड़कें भी ज्यादा चौड़ी नहीं, लेकिन ट्रैफिक कमोबेश व्यवस्थित. स्थानीय लोगों ने बताया कि बाजार 8 बजे तक बंद हो जाता है. मोटे तौर पर खाने –पीने की सब चीजें उपलब्ध थी. मोमो, चाउमीन आदि लोगों की पसंद है, ऐसा पता चला. चलते -चलाते कुछ स्थानीय युवकों से बातचीत में पढ़े -लिखे युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या स्पष्ट रूप से उभर कर आई. 

कहा जाता है कि कलिंपोंग जो कि समुद्र तल से 4100 फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है, पहले भूटान साम्राज्य का हिस्सा था जो 1865 में ब्रिटिश प्रशासन के अधीन आ गया. यहाँ के सदाबहार मौसम और आसपास के मोहक परिवेश को ध्यान में रख कर अच्छी संख्या में अंग्रेज यहाँ आकर रहने लगे. लिहाजा,  ब्रिटिश प्रशासन ने यहाँ कई अच्छे स्कूल  खुलवाये जिनमें से कुछ अच्छे स्कूल अब भी मौजूद हैं. इन स्कूलों में अब तो अन्य शहरों के बच्चे भी अच्छी संख्या में पढ़ते हैं. यहाँ अनेक आर्किड गार्डन और फूलों के नर्सरी हैं, जहाँ सैकड़ों प्रकार के फूल के पौधे हैं. कहना न होगा, यहाँ बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रकार के फूलों का उत्पादन होता है. कलिंपोंग के पूर्व और पश्चिम भाग में बंटे दर्शनीय स्थलों (साईट सीइंग पाइंट्स ) में मोनेस्ट्री, मंदिर, पार्क, हेरिटेज बिल्डिंग  आदि भी शामिल हैं. यहाँ से दार्जीलिंग और गंगटोक दोनों ही दर्शनीय स्थानों तक करीब तीन घंटे में पहुंचा जा सकता है.

यात्रा की थोड़ी थकान तो थी और ठण्ड भी. जल्दी सो गया. सुबह आँख खुली तो खिड़की से बाहर देखा. झमाझम बारिश हो रही थी. सड़कों पर इक्का-दुक्का लोग आ–जा रहे थे. धीरे –धीरे चहल-पहल बढ़ी – स्कूल जाते बच्चों के साथ. बारिश अब भी हो रही थी, लेकिन छोटी –बड़ी छतरी में अकेले या अभिभावक के साथ बच्चे मस्ती करते हुए स्कूल जा रहे थे, बारिश से बेपरवाह, जैसे यह उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी का खुशनुमा हिस्सा हो. एक क्षण के लिए अपने बचपन के दिन याद आ गए, अनायास ही गुनगुना उठा : बचपन के दिन भी क्या दिन थे ...... कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ....   

उसी मनःस्थिति में कुछ पल बीते. फिर एक सवाल सामने आया कि क्या कोई आपका बचपन लौटा सकता है या बीते हुए वे अच्छे दिन. शायद नहीं. हाँ, अगर हम खुद यह तय कर लें कि वर्तमान को खूब एन्जॉय करेंगे, तो हम उन बीते हुए पलों को किसी न किसी रूप में थोड़ा–बहुत तो जी ही लेंगे, क्यों ? तो फिर हम भी इसी भाव का दामन थामे निकल पड़े उसी बारिश में स्थानीय दर्शनीय स्थलों का आनंद लेने.

झमाझम  बारिश के बीच पहाड़ी सड़कों पर  गाड़ी का  अपनी रफ़्तार में आगे बढ़ना जोखिम भरा तो था, लेकिन ड्राईवर बड़े  आत्मविश्वास से गाड़ी चला रहा था और आगे छोटे –बड़े पर्वतों के बीच तैरते सफ़ेद-काले बादलों को देखने का रोमांच भी कम नहीं था. ऐसे ही नजारों को देखते-निहारते हुए हम पहुंच गए प्रसिद्ध डेलो हिल्स और डेलो लेक . यह कलिंपोंग के उत्तर-पूर्व  में 5590 फीट की ऊंचाई पर  स्थित है, जो कलिंपोंग शहर का सबसे ऊँचा स्पॉट है. इस पर्वत पर अवस्थित गार्डन –पार्क बहुत ही खूबसूरत है. हम जब वहां पहुंचे, बादल के छोटे टुकड़े इधर से उधर आ–जा रहे थे; रिमझिम बारिश हो रही थी जो वहां के वातावरण को और भी आकर्षक बना रहा था. कहते है कि मुख्यतः डेलो लेक से कलिंपोंग शहर को जल आपूर्ति की जाती है. 


वहां से लौटते हुए साइंस सेंटर, हनुमान पार्क और कुछ अन्य दर्शनीय स्पॉट होते हुए हम केशिंग के रास्ते बढ़ चले सिक्किम की राजधानी गंगटोक की ओर. यह पर्वतीय रास्ता वहां के गांवों से होते हुए सिलीगुड़ी –गंगटोक मुख्य मार्ग पर रंगपो से थोड़ा  पहले जाकर मिलता है. फलतः हमें वहां के गांवों में रहनेवालों के रहन-सहन की एक झलक मिली. एक सुव्यवस्थित सामुदायिक भवन भी दिखा जहाँ स्थानीय लोगों की अच्छी चहल -पहल थी. कहते हैं प्रकृति के गोद में रहने वाले लोगों का तन, मन, मिजाज, परिधान आदि कुछ भिन्न ही होता है, अमूमन कुछ बेहतर भी. हमें यह खूब दिखा. पहाड़ पर यहाँ-वहां बसे घरों के आसपास सफाई थी; लोगबाग साफ़ सुथरे वेशभूषा में नजर आये. मुर्गी के छोटे बच्चे छोटे-मोटे कीड़े आदि को  ढूंढने व खाने में मशगूल थे. चारों ओर हरियाली तो खूब थी ही. सब कुछ गुड -गुड लग रहा था, फिर भी कलिंपोंग को गुडबाय कह कर हम आगे बढ़ चले. जीवन चलने का नाम....    

                                                                                         
हमारी कार तीस्ता नदी पर बने एक पुल के पार आकर रुक गयी. हम सिलीगुड़ी –गंगटोक राजमार्ग यानी एन.एच -10 पर आ गए थे और अब सिक्किम प्रदेश में प्रवेश करने वाले थे. इस स्थान को रंगपो के नाम से जाना जाता है. 'रंगपो' सिक्किम के पूर्व में अवस्थित एक छोटा-सा क़स्बा है जो सिक्किम और पं. बंगाल की सीमा पर स्थित है. यह क़स्बा सिक्किम में प्रवेश करने का एक मुख्य द्वार है जो तीस्ता नदी के किनारे बसा है. सिक्किम में प्रवेश करनेवाले सभी वाहनों को रंगपो चेक पोस्ट पर पुलिस निरीक्षण के लिए रुकना अनिवार्य होता है. सो, हमारी कार के आगे और कई वाहन निरीक्षण की औपचारिकता पूरी करवाते हुए सरक रहे थे.

इस चेक पोस्ट पर पहुँचते ही सिक्किम पुलिस और पीछे छूटे पं. बंगाल पुलिस के बीच का फर्क सहज ही दिख गया. इस चेक पोस्ट पर तैनात पुरुष और महिला पुलिसकर्मी दोनों ही चुस्त-दुरुस्त एवं अपने काम में ज्यादा दक्ष दिखे. उनकी उम्र भी पैंतीस वर्ष से कम प्रतीत हुआ. ड्राइवर ने बताया कि वाहनों को चेक करने एवं वहां से आगे निकालने के लिए वे एक मानक प्रक्रिया का पालन करते हैं, जो पारदर्शी भी है.

रंगपो चेक पोस्ट से थोड़ा आगे बढ़ने पर सिक्किम के पहले बाजार में हम रुके. सड़क के दोनों ओर शराब सहित अन्य खान-पान की चीजें उपलब्ध थी. एक रेस्तरां में कुछ अल्पाहार लेने के बाद हम सिक्किम की राजधानी ‘गंगटोक’ की ओर बढ़ चले. सड़क की स्थिति बेहतर थी. गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी. कलकल कर बहती तीस्ता नदी से मिलते –बिछुड़ते हम सिंगतम के रास्ते पहाड़ पर चढ़ते जा रहे थे, एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर. आसपास का दृश्य बहुत ही मनोरम था. पहाड़ विविध प्रकार के वनस्पतियों से आच्छादित. मोबाइल में ही उन दृश्यों को कैद करने का प्रयास जारी था. साथ में डर भी था कि मोबाइल की बैटरी न ख़त्म हो जाए. गंगटोक पहुंचने तक बैटरी लाइफ को बचाते हुए चलने की मजबूरी थी. लिहाजा, ज्यादातर दृश्य मन-मानस में अंकित करने का प्रयास करने लगा.

बताते चले कि सिक्किम हमारे देश के उत्तर पूर्व भाग में अवस्थित एक पर्वतीय राज्य है. नजदीकी एअरपोर्ट बागडोगरा, जो पश्चिम बंगाल के दूसरे बड़े शहर सिलीगुड़ी से 11 किलोमीटर की दूरी पर है, से गंगटोक की दूरी करीब 125 किलोमीटर है. गंगटोक समुद्र तल से 5410 फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है. जनसंख्या की दृष्टि से यह भारतीय गणतंत्र का सबसे छोटा राज्य है, तथापि भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह विविधताओं से भरा प्रदेश है. सिक्किम की सीमा पं. बंगाल के साथ –साथ  नेपाल, भूटान, तिब्बत-चीन जैसे देशों से लगी है, इस कारण इसका सामरिक महत्व बढ़ जाता है. तीस्ता नदी को, जो सिक्किम के उत्तर से दक्षिण की ओर पूरे वेग से बहती है, इस प्रदेश का लाइफ –लाइन कहा जाता है. इस नदी में आपको रीवर राफ्टिंग का आनंद लेते युवाओं की टोली अनायास ही दिख जायेगी. यहाँ कई पन-बिजली उत्पादन केन्द्र हैं, जिससे पूरे सिक्किम को बिजली की आपूर्ति की जाती है. प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न इस प्रदेश में 25 से ज्यादा पर्वत चोटियां हैं, जिनमें विख्यात कंचनजंघा की चोटी सबसे ऊंची है. यहाँ दो सौ से ज्यादा छोटी –बड़ी झीलें हैं. शायद यही सब कारण है कि सिक्किम के रेल और हवाई मार्ग से न जुड़े होने के बावजूद यह हमारे देश के उत्तर पूर्व का एक प्रमुख पर्यटन केन्द्र है.


गाड़ी चल रही थी और घड़ी की सुई भी. एक बोर्ड पर नजर पड़ी, लिखा था रानीपुल – अब गंगटोक बस 12 कि.मी. दूर. पूछने पर ड्राईवर ने बताया कि इसे गंगटोक का ही हिस्सा माना जाता है, क्यों कि यह गंगटोक नगर निगम के अंतर्गत ही आता है.  इसे गंगटोक शहर का पूर्वी छोर कह सकते हैं. यहाँ कई स्कूल एवं व्यवसायिक प्रतिष्ठान  के अलावे दो बड़ी दवाई कम्पनी का प्रोडक्शन यूनिट कार्यरत है. पास में ही ‘मेफेयर स्पा रिसोर्ट एवं कैसिनो’ भी है, जिसके कारण यहाँ बराबर चहल–पहल रहती है.

गंगटोक के मुख्य बाजार तक पहुंचने से पहले ही ट्रैफिक अनुशासन का पता चलने लगा. आने-जानेवाली सभी गाड़ियाँ बिलकुल लाइन में चल रही थी. नो ओवर टेकिंग, नो बेवजह हॉर्न. गाड़ियों की लम्बी कतार थी, पर धीरे–धीरे आगे भी बढ़ती जा रही थी. थोड़ी-थोड़ी दूरी पर वाकी-टाकी लिए स्मार्ट पुलिस कर्मी अपने–अपने काम में लगे थे. 


गंतव्य आ गया था. होटल में पहुँचते ही एक कर्मी ने बताया और फिर दिखाया कि वह देखिए सामने प्रसिद्ध ‘कंचनजंघा’ पर्वत दिखाई पड़ रहा है. अच्छा लगा.  होटल और उसके आसपास सफाई दिखी. होटल के कमरे में पंखा नहीं था और न ही होटल में जेनेरटर या इन्वर्टर की सुविधा. कारण यह बताया गया कि यहाँ लोड शेडिंग न के बराबर होता है और सालोभर यहाँ का मौसम कमोबेश ठंडा होने के कारण पंखे की जरुरत महसूस ही नहीं होती. बेशक दोपहर के वक्त कभी-कभी गर्मी का एहसास हो जाए. कहने का तात्पर्य, मौसम है सुहाना, दिल है .....  आगे आप खुद समझदार हैं.                                                                          
पहाड़ पर बसे इस शहर में नीचे से काफी ऊपर तक मकान, दुकान, होटल, ऑफिस आदि कमोबेश ढंग से अवस्थित हैं. यहाँ  आवागमन घुमावदार मार्गों या पैदल सीढ़ियों के मार्फ़त होता है. यहाँ के बाशिंदों के लिए चलना और चढ़ना–उतरना एक ही तरह का काम है. बाजार में पैदल चलने वालों की तादाद अच्छी है.  यहाँ न साइकिल रिक्शा है, न टेम्पो और न ही आम छोटे  शहरों में धुआं छोड़ते मिनी बस. मोटर साइकिल, स्कूटर आदि भी बहुत कम ही दिखे. हाँ, कहीं भी आने-जाने के लिए शेयर और रिज़र्व टैक्सी उपलब्ध है. बोझ ढोने के लिए हर चौक–चौराहे पर मजदूर सुलभ हैं, जो रस्सी के फंदे के सहारे अपने पीठ और कंधे पर न जाने कितनी चीजें लेकर तेजी से चढ़ते –उतरते रहते हैं.


गंगटोक शहर अपेक्षाकृत साफ़–सुथरा है, लेकिन लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ाये जाने की अच्छी गुंजाइश तो है ही. मुख्यतः पर्यटन पर आधारित वहां की अर्थ व्यवस्था को बेहतर बनाए रखने के लिए स्वच्छता पर और ज्यादा ध्यान देने की अनिवार्यता से कोई कैसे इन्कार कर सकता है. यूँ  भी देश–विदेश के विभिन्न जगहों और परिवेश से रोज आने वाले हजारों सैलानी शहर को जाने-अनजाने कुछ तो गन्दा करेंगे ही.

गंगटोक में अलग-अलग श्रेणी के अनेक होटल, लॉज, गेस्ट हाउस आदि हैं, जहाँ हर आय वर्ग के पर्यटक रुकते हैं. सड़क किनारे खुले में खाने –पीने की चीजें बिकते हुए कम ही नजर आये, बेशक टूरिस्ट स्पॉट्स को छोड़कर. करीब एक लाख के आबादी वाले  इस शहर में लोगों के रहन-सहन में महानगरीय खाई नहीं दिखती.

हमारे होटल के पास ही सिक्किम का पुलिस मुख्यालय था, बिना किसी सुरक्षा तामझाम के और थोड़ी चढ़ाई पर था गंगटोक का प्रसिद्ध शॉपिंग एरिया, महात्मा गांधी मार्ग यानी एम. जी रोड. वहां पहुंचने पर आपको लगेगा कि आप किसी विदेशी पर्यटन केन्द्र के मुख्य बाजार में आ पहुंचे हैं. इस रोड पर हर तरह के वाहन का प्रवेश निषेध है. दायें और बाएं दोनों ओर सड़क रंगीन टाइल्स से बनी है और चकाचक है. दोनों सड़क के बीच के हिस्से में बैठने की व्यवस्था है, जहाँ सैलानी घंटों बैठते हैं और उस स्थान की खूबसूरती और चहल-पहल का आनंद उठाते हैं. यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि अगर आप महात्मा गांधी की ताम्बे के आदमकद मूर्ति को देखकर यह सोच रहे हों कि वहां के बाजार में सस्ती और सही मूल्य पर चीजें उपलब्ध होंगी  तो आपको निराशा हाथ लगेगी.


एक बात और. महात्मा गांधी मार्ग पर दर्जनों टूरिस्ट एजेंसी के बोर्ड सहज ही दिखाई पड़ेंगे. उनसे मिलने और कुछ जानकारी लेने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन कोई निर्णय करने से पहले उक्त मार्ग के प्रवेश छोर पर स्थित सिक्किम सरकार के पर्यटन एवं नागरिक विमानन विभाग द्वारा संचालित ऑफिस में जरुर जाएं. आपको बेहतर जानकारी मिलेगी. इससे आपको सही और गलत का भी पता चलेगा, जो आपके वक्त और पैसे के सदुपयोग के लिए जरुरी भी है, शायद सुरक्षा के लिहाज से भी.  ...आगे जारी.           (hellomilansinha@gmail.com) 
                                                                                     
                                                             फिर मिलेंगे, बातें करेंगे - खुले मन से ... ...
# प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका "नई धारा" में प्रकाशित