Tuesday, February 5, 2019

मोटिवेशन: परीक्षा तो जीवन का हिस्सा है

                                                   - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ...
कुछ ही दिनों में सीबीएसइ की दसवीं तथा बारहवीं की परीक्षा सहित प्रादेशिक बोर्ड की परीक्षाएं भी   प्रारंभ हो रही हैं. छात्र–छात्राएं तैयारी में पूरी तरह जुट गए हैं. अभिभावक–शिक्षक की व्यस्तता भी बढ़ गई है. सही है. 

जरा सोचें कि परीक्षा आखिर है क्या, तो पायेंगे कि यह तो वाकई विद्यार्थियों के धैर्य, दिमागी संतुलन, ज्ञान एवं समय प्रबंधन का एक टेस्ट मात्र है.  दूसरे शब्दों में, उन्होंने अबतक जो कुछ पढ़ा है, सीखा है, जाना है, समझा है, और अगले कुछ दिनों तक उसमें जो कुछ जोड़ेंगे, उसके आधार पर परीक्षा में एक नियत समय सीमा के भीतर पूछे गए प्रश्नों का सटीक जबाव देना है.

कुछ लोग परीक्षा को ‘पर इच्छा’ भी कहते हैं. अगर यह सही है तो  परीक्षा में सब कुछ अपनी इच्छा के अनुरूप हो, यह जरूरी  नहीं. इसलिए, परीक्षा के पहले यह अपेक्षित है कि कूल -कूल और नार्मल रहते हुए यथासाध्य प्रयास करते रहें. इसके लिए संतुलित जीवनशैली अपनाकर खुद को फिट एवं जीवंत बनाए रखना बहुत लाभकारी होता है. हालांकि इस दौरान अमूमन यह देखने में आता है  कि अध्ययन के नार्मल रूटीन के साथ -साथ छात्र-छात्राओं की अन्य सामान्य दिनचर्या तक अस्त-व्यस्त हो जाती है. कहने का मतलब  यह  कि उन्हें न तो समय पर खाने की फ़िक्र रहती  है और न ही समय पर सोने  की,  जब  कि  परीक्षा की पूरी अवधि में  खाने और सोने पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, जितना कि पढ़ने पर.  ऐसा  इसलिए कि यथासमय आहार व नींद से  दूर रहने पर वे पर्याप्त शारीरिक एवं मानसिक शक्ति से युक्त नहीं रह सकते हैं. इसके एक दुष्प्रभाव  के रूप में उनमें नकारात्मक विचारों में वृद्धि हो जाती है  और वे अचानक ही खुद को अनेक समस्याओं से घिरे पाते हैं; परीक्षा के दौरान बीमार पड़ने की संभावना भी बढ़ जाती है; और फिर परीक्षा में बेहतर परफॉर्म करना कठिन हो जाता है. तो क्या करें?

रात में जल्दी सोयें और सुबह जल्दी उठें. नित्यक्रिया से निवृत होकर कम-से-कम 15 मिनट वार्मअप एक्सरसाइज एवं प्राणायाम –ध्यान कर लें.  सुबह नाश्ता खूब बढ़िया से करें यानी पौष्टिक आहार लें. सच पूछें तो घर में  उपलब्ध एवं तैयार पौष्टिक नाश्ते से  प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फैट, विटामिन, मिनिरल आदि पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है जो हमें शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रखने के लिए काफी है. दोपहर के खाने में चावल या रोटी के साथ दाल, मौसमी हरी सब्जी, दही, सलाद का सेवन करें. अपने आहार  में मौसमी फलों को भी शामिल करें. रात के खाने को सादा एवं सबसे हल्का रखें और  नौ बजे तक खाना खा भी लें.  हाँ, जंक, बाजारू एवं प्रोसेस्ड चीजों से बचने की हरसंभव कोशिश करें. डिनर पार्टी आदि से दूर रहें. परीक्षा के दिन यथासंभव सादा एवं सुपाच्य भोजन करें, मसलन दाल–रोटी, दही–चूड़ा, खिचड़ी, इडली-सांभर  आदि. खाना खूब चबाकर खाएं और शरीर को बराबर हाइड्रेटेड रखें, अर्थात पानी पीते रहें.

चिकित्सा विज्ञान कहता है कि रात में अपर्याप्त नींद के कारण हमारा स्वास्थ्य खराब हो जाता है. ऐसे लोगों का स्ट्रेस हॉर्मोन्स काफी बढ़ जाता है जिसके चलते वे एकाधिक रोगों की चपेट में आ जाते हैं. लिहाजा, रात में सात–आठ घंटा जरुर सोयें. रात की अच्छी नींद सुबह आपके लिए ताजगी, उमंग व उत्साह का उपहार लेकर आती है. हाँ, सोने से पहले  अपना  मोबाइल बंद कर लें तो उत्तम, नहीं तो कम से कम साइलेंट मोड पर जरूर कर लें. मोबाइल को सोने के स्थान से दूर रखें. एक और बात. ध्वनि तथा प्रकाश अच्छी नींद को बाधित करते हैं.  सोने से पहले इसका  ध्यान रखें तो बेहतर. मौका मिले तो दोपहर में भी थोड़ी देर (घंटा भर) सो लें – रीफ्रेशड फील करेंगे. 

सार-संक्षेप यह कि परीक्षा से पहले अब जितने दिन शेष है, उसका बेहतर उपयोग करें. किस विषय में और कितना समय दे सकते हैं, उसका सही आकलन कर एक स्मार्ट कार्ययोजना बनाकर उस पर अमल करें. जो समय बीत गया, उसकी चिंता इस वक्त कतई न करें. प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है न, 'जो बीत गयी सो बात गयी ….'  बेहतर तो यह है कि अब जो कर सकते हैं  उसी पर फोकस करें.  यथासाध्य और यथासंभव रीविजन करें, लिखने का अभ्यास भी करें.  कहते हैं न, ‘प्रैक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट’. फार्मूला, महत्वपूर्ण पॉइंट्स आदि पर विशेष ध्यान दें, उन्हें अंडरलाइन करें, हाईलाइट करें.

परीक्षा जैसे नाजुक अवसर पर यह भी देखा  गया है कि ज्यादातर स्टूडेंट यह सोच-सोच कर  परेशान  रहते हैं कि दोस्त क्या पढ़ रहे हैं, क्या कर रहें हैं. ऐसा सोचना बहुमूल्य समय की बेवजह बर्वादी है.  ऐसे वक्त दोस्त को फ़ोन करना नाइंसाफी  से कम नहीं.  ऐसे में अपना  मोबाइल बंद कर लें तो उत्तम, नहीं तो कम से कम साइलेंट मोड पर जरूर कर लें.  फेस बुक आदि से इस समय दूर ही रहें तो अच्छा. बस खुद पर और परीक्षा की अपनी तैयारी  पर ध्यान केन्द्रित करें.

अंत में एक छोटी-सी बात और.  परीक्षा के दौरान  “टेक-इट-इजी”  सिद्धांत को फॉलो करें. इस सिद्धांत के तहत प्रश्नों को पहले ठीक से पढ़ना, समझना और फिर उत्तर देना चाहिए.  इस अवसर पर ‘स्मार्ट समय प्रबंधन’ आपके परफॉरमेंस और परीक्षाफल को बेहतर बनाता है.      (hellomilansinha@gmail.com)

                                         ...फिर मिलेंगे, बातें करेंगे - खुले मन से ... ...
   
#लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 20 जनवरी, 2019 अंक में प्रकाशित 
#For Motivational Articles in English, pl. visit my site : www.milanksinha.com  

Friday, January 18, 2019

Stress Management - The New Life Scenario

                                                     - MILAN K SINHA
Only change is permanent in life – it has been the cardinal truth for centuries. May be the pace of change vary from time to time, place to place, country to country and from person to person. But, change takes place day in and day out. It being so, there is no denying the fact that the world is changing and also changing fast - socially, economically, technologically, politically and culturally, and so is our country. The pace of this change has been faster in corporate world with the advent of the famous concept of LPG -Liberalization, Privatization and Globalization.

Now, if change is the main variable in our life, accepting and accordingly adapting to the changes to keep us going and enjoying life is very essential. It is more so for individuals who try to build up a big business empire or to go up in career path very fast. In fact, failure to manage change results in worries, tension and stress which as per several findings of medical research have  also been the reasons for heart, kidney and liver problems – in number of cases even in early thirties itself. 

Its common knowledge that over the last couple of years, value system in our society has undergone changes more for worse; in corporate world, it has generally collapsed. Young professionals seeking remedy for maladies like stress and depression talk straight and simple against the compelling work environment being created purposefully for achieving, at times even seemingly unachievable, business targets more by crook than by hook. Unfortunately, this is becoming the order of the day in many companies, more noticeably in Indian IT as well as Financial Sectors.

Yes, the level of uncertainty, tension and stress has been going up, everyone agrees, if not talk openly. And almost in the same proportion the level of joy, happiness and comfort has been going down despite the much talked about GDP growth story of our country.  But, except visiting a doctor and taking sleeping pills, is there any easy and doable solution to correct the situation to begin with? Can effecting a change in our lifestyle, behavior pattern and thought process help in this regard? 

Definitely, there are a few we can discuss here.

The first thing we should do is to avoid imitating others blindly. Making our life a copy-paste version will not lead us to a happy and contented life. On the contrary, we should sincerely try to know ourselves. And, in turn, find ourselves and be ourselves always endeavoring for further improvement in one’s personality by positive thoughts, actions and engagements on an ongoing basis.
Instead of being submissive or aggressive in one’s behavior, it is desirable to be assertive since assertive behavior encompasses the qualities of being confident, mature, frank, balanced, objective, dynamic, decisive, competent, humorous, relaxed and logical. The assertive attitude must be backed by an honest, transparent, and committed action.

Physical fitness is necessary in order to stay mentally healthy as well. What affects our body affects our mind and vice-versa. Eating healthy and sleeping well are therefore, very necessary as engaging oneself in regular physical exercise including walking. Spending quality time with family, more particularly with children and elderly ones is equally important.
Generally speaking, the human tendency, you will agree, has been to think and worry about what we haven’t rather than think what we have, even though; generally many of the things in our lives are right. In fact, we have been in the habit of counting our curses and not the blessings. Undoubtedly, this is the greatest tragedy and it has probably caused more misery than all the wars and diseases in the history. Contrary to this kind of psychology, if we tend to practice ‘Think and Thank’ philosophy in our day to day life, we can have the feeling of wellness in abundance. 

Practicing ancient relaxation techniques like YOGA, MEDITATION & PRAYER needs no extra emphasis in today’s fast and relatively complex life. Yoga is not an exercise but it is a way of life. Yoga actually means the experience of oneness or unity with your inner being. Meditation, sitting still, alone with our thoughts and feelings, usually has a very soothing effect both on our body and mind. And many of us know that our greatest power lies in the power of prayer.

So, then why not start enjoying the fruits of conscious living instead of casual living we normally live knowingly or unknowingly and complaining against its negative outcomes. It would definitely change our whole perspective towards life which is so precious to be experienced and enjoyed.
           Will meet again with Open MindAll The Best.

Tuesday, January 15, 2019

बड़े उद्देश्य को हासिल करना होगा आसान

                                                                            - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर...
बीते दिनों मीडिया में इस बात की खूब चर्चा हुई कि 35 वर्षीय भारतीय महिला मुक्केबाज एम.सी. मैरी कॉम ने 10वीं एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में शानदार जीत हासिल की. इस तरह उन्होंने 6 विश्व चैंपियनशिप जीतकर भारतीय खेल इतिहास में स्वर्णाक्षर में अपना नाम दर्ज करवाया. 

अंतरराष्ट्रीय खेलों में त्रिपुरा की जिमनास्ट दीपा करमाकर और असम की धाविका हीमा दास के अभूतपूर्व प्रदर्शन को भी हम भूले नहीं हैं. हाल ही में वर्ल्ड टूर बैडमिंटन फाइनल में पी. वी. सिंधु ने जापान की नोजोमी ओकुहारा को पराजित कर जो विश्व खिताब हासिल किया, उससे पूरा देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है. 

खेलकूद की दुनिया में ध्यानचंद, प्रकाश पादुकोणे, माइकल फरेरा से लेकर अविनव बिंद्रा, सुनील क्षेत्री और महेंद्र सिंह धोनी तक हमारे देश के अनेक खिलाड़ियों ने सैकड़ों नए मानदंड बनाए. 

‘भाग मिल्खा भाग’ नाम से चर्चित फिल्म आपने भी देखी होगी, जिसमें अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित मिल्खा सिंह के जोश, जूनून और मेहनत को बखूबी दर्शाया गया है. तमाम अवरोधों एवं परेशानियों के बावजूद मिल्खा सिंह  कैसे एक के बाद एक रिकॉर्ड तोड़ते गए. तभी तो वे आज भी  देश –विदेश के लाखों –करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं.

विज्ञान के क्षेत्र से एक उदाहरण लेते है, जिन्होंने अपने तय मुकाम को पाने के लिए आशा, दृढ़ निश्चय और अथक परिश्रम के बलबूते अविश्वसनीय सफलता हासिल की और नए कीर्तिमान स्थापित किये. हां, मैडम क्यूरी की जिन्दगी संघर्षों से निरंतर लड़ते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचने की  गौरव गाथा है. रेडियम जैसे महत्वपूर्ण धातु का आविष्कार करने वाली इस वैज्ञानिक को दो बार नोबेल पुरस्कार विजेता होने की असाधारण ख्याति मिली. दरअसल, मैडम क्यूरी के नाम से प्रसिद्ध होने से पहले उन्हें लोग मार्जा स्क्लोदोव्स्का के नाम से जानते थे जो पोलैंड की राजधानी वारसा की रहनेवाली थी. उनके पिता विज्ञान के शिक्षक थे. घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण युवा मार्जा को भी एक बच्ची को उसके घर जा कर पढ़ाना पड़ता था. बावजूद इसके परिस्थिति कुछ यूँ बिगड़ी कि उसे मजबूरन वारसा से पेरिस आना पड़ा जिससे वह अपनी विज्ञान की पढ़ाई जारी रख सके. लेकिन यहाँ भी उनकी आर्थिक हालत कुछ ऐसी रही कि कमरे का किराया चुकाने के बाद उन्हें खाने –पहनने तक की बड़ी परेशानी से रोज रूबरू होना पड़ता. पेरिस की कड़ाके की सर्दी को झेलने के लिए उनके पास न तो पर्याप्त गर्म कपड़े थे और न ही घर  को गर्म रखने के लिए लकड़ी –कोयला आदि खरीदने के लिए पैसे. लिहाजा वह पढ़ते व सोते हुए सर्दी से ठिठुरती रहती. खाने के मामले में भी बहुत बुरा हाल था. हफ्ते-दर-हफ्ते वह डबल रोटी व चाय पर गुजारा करती. नतीजतन, वह इतनी  कमजोर हो  गयी  कि एक बार तो अपने क्लास में ही बेहोश हो गयी. तथापि पढ़ाई के प्रति उनकी लगन कम नहीं हुई और आगे तो उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में कमाल के काम किये और भौतिक शास्त्र एवं रसायन शास्त्र दोनों में नोबेल पुरस्कार जीता.

वाकई यह जानना मुनासिब और दिलचस्प होगा कि आखिर किस तरह इन लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र में सफलता का परचम लहराया. लेकिन उससे ज्यादा यह जानना जरुरी है कि क्या सफलता के पीछे कुछ बुनियादी सिद्धांत कार्य करते हैं? 

हां, बिलकुल करते हैं. पहले तो हमें एक सार्थक या यूँ कहें कि एक स्मार्ट लक्ष्य तय करना पड़ता है. यहां स्मार्ट का मतलब है, एक निश्चित समयावधि में हासिल करने योग्य. इसके बाद उस उद्देश्य तक पहुंचने के लिए सही व समयबद्ध कार्ययोजना की आवश्यकता होती है. कहने की जरुरत नहीं कि उस निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पूरे लगन एवं मेहनत से उस दिशा में जुटे रहना भी अनिवार्य है. इसीलिये मिसाइल मैन व जनता के राष्ट्रपति के नाम से विख्यात पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का कहना है,‘अपने मिशन में कामयाब होने के लिए, आपको अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतः निष्ठावान होना पड़ेगा.’

वाकई इस सिद्धांत पर चलते रहने पर पारिवारिक जीवन हो या नौकरी या व्यवसाय या कोई अन्य क्षेत्र हो, हमारे सफल होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है, साथ ही आगे और बड़े मुकाम को प्राप्त करने के प्रति हमारा आत्मविश्वास भी. गुणीजनों का भी स्पष्ट मत है कि जीवन में एक बड़े उद्देश्य को लेकर शिद्दत से आगे बढ़ना सफलता का सोपान बनता है.          (hellomilansinha@gmail.com)

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#लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 13 जनवरी, 2019 अंक में प्रकाशित 
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Saturday, January 12, 2019

स्वामी विवेकानन्द- युवाओं के प्रेरणा स्रोत... ...


                                                                         - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ...                                                                       
नरेन यानी नरेंद्र नाथ दत्त जिन्हें दुनिया आज स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानती और सराहती है, का जन्म कलकत्ता के एक कुलीन और संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी, 1863 के दिन हुआ था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाई कोर्ट के नामी वकील थे. उनके दादा जी दुर्गाचरण दत्त बांग्ला के अलावे संस्कृत तथा फारसी के विद्वान् थे और मात्र 25 वर्ष की उम्र में गृहस्थ जीवन को त्यागकर साधू बन गए थे. नरेन की मां भुवनेश्वरी देवी  धार्मिक विचारों से ओतप्रोत एक कर्तव्य निष्ठ महिला थी.

नरेन पढ़ने-लिखने में तेज थे तो खेलने और बाल सुलभ अन्य मामलों में भी. उनके घर में पूजा -पाठ, भजन-कीर्तन, पठन -पाठन आदि का अच्छा परिवेश था जिसका समग्र सकारात्मक असर नरेन के स्वभाव एवं संस्कार पर पड़ना स्वभाविक था. सब कुछ बढ़िया चल रहा था कि अचानक 1884 में उनके पिता का देहांत हो गया. उस समय नरेन 21 वर्ष के थे और उसी वर्ष उन्होंने बीए की परीक्षा पास की थी. पिता के गुजरने के बाद पूरा परिवार आर्थिक तंगी का शिकार हो गया. आगे के चार वर्ष काफी कठिन गुजरे. 1881 में उनकी मुलाक़ात रामकृष्ण परमहंस से हुई. युवा नरेन अपने गुरु से बेहद प्रभावित थे. फलतः उन्होंने  अपना जीवन रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया. 

इस बीच जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये. अप्रत्याशित आर्थिक तंगी के बीच सामाजिक विरोध-बहिष्कार के शिकार हुए; एकाधिक जगहों पर नौकरी की.  1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भारत के प्रतिनिधि के रूप में अपना ऐतिहासिक भाषण देने से पूर्व करीब पांच वर्षों तक वे देश के विभिन्न भागों का एक सामान्य सन्यासी के रूप में  पैदल भ्रमण  करते रहे. इस व्यापक यात्रा में उन्होंने  देश के लोगों की वास्तविक स्थिति को अपनी आँखों से देखा, उसे खुद महसूस किया. मात्र साढ़े 39 साल की उम्र में 4 जुलाई, 1902 को विवेकानन्द ने अपना देह त्याग दिया.  

स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के नाम पर  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की जो दशकों से आम देशवासियों के सामजिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत कार्य करता रहा है.

स्वामी जी मनुष्य को श्रेष्ठतम जीव मानते थे.  देखिए क्या थे स्वामी जी के विचार:
  • मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से - यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है.... .... भगवान मनुष्य के भीतर रहते हैं; मानव शरीर में स्थित आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है; अगर  मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी भी मंदिर में जाने से कुछ भी उपकार नहीं होगा. 
  • जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हरेक मानव शरीर रुपी मंदिर में विराजमान हैं, जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो सकूँगा और उसके भीतर भगवान को देखने लगूंगा – उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा....
स्वामी जी मनुष्य के कर्त्तव्य पर कहते हैं :
  • हमारा पहला कर्त्तव्य यह है कि अपने प्रति घृणा न करें; क्योंकि आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम स्वयं में विश्वास रखें और फिर ईश्वर में. जिसे स्वयं में विश्वास नहीं, उसे ईश्वर में कभी भी विश्वास नहीं हो सकता...
  • प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्न करें. दूसरों के ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है..... 
  • जब तुम कोई कर्म करो, तब अन्य किसी बात का विचार ही मत करो. उसे एक उपासना के रूप में करो और उस समय उसमें अपना सारा तन-मन लगा दो.
स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा: 
  • पहले रोटी और तब धर्म चाहिए. गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं ...
  • संभव की सीमा जानने का केवल एक ही मार्ग है. और वह है असंभव से भी आगे निकल जाना 
  • युवा वह है जो अनीति से लड़ता है, जो दुर्गुणों से दूर रहता है, जिसमें जोश के साथ होश भी है, जो समस्याओं का समाधान निकालता है, जिसमें राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाने का जज्बा है ....
  •  हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है, और वह भी हमारे पतन का कारण है. हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता.....
आज जरुरत इस बात की है कि हम स्वामी जी के कर्म, विचार और व्यक्तित्व से सच्ची प्रेरणा लें और देश के सभी लोगों, खासकर करोड़ों गरीब जनता (स्वामी जी के शब्दों में 'दरिद्रनारायण') की भलाई के लिए सच्चे मन एवं सम्पूर्ण समर्पण से काम करें.  (hellomilansinha@gmail.com) 
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Tuesday, December 18, 2018

यात्रा के रंग अनेक : श्री जगन्नाथ मंदिर और आसपास

                                                                                        - मिलन सिन्हा 
पुरी में सागर तट के पास स्थित अपने होटल में सुबह-सुबह स्नानादि से निवृत होकर हम चल पड़े विश्व प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर की ओर. यहां से मंदिर जाने के एकाधिक मार्ग हैं. हमने गलियों से गुजरते रास्ते  को चुना जिससे वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की कुछ झलक मिल सके. गलियां आवासीय मकानों के बीच से होती हुई निकलती हैं. कस्बाई रहन-सहन. लोग सीधे-सादे. आपस में सटे-सटे ज्यादातर एक मंजिला- दो मंजिला मकान. कुछेक घरों में सामने के एक-दो कमरों में चलते दुकान. इन दुकानों में आम जरुरत की चीजें सुलभ हैं. यहाँ के निवासियों के अलावे सामान्यतः ऐसे गलियों का इस्तेमाल मंदिर तक पैदल आने-जाने वाले भक्तगण करते हैं. गलियों में टीका-चंदन लगाये खाली पैर चलते अनेक लोग दिखते हैं. स्थानीय उड़िया भाषा के अलावे पुरी के आम लोग हिन्दी और बांग्ला भाषा समझ लेते हैं, कई लोग बोल भी लेते हैं. 

मंदिर के आसपास फैले बाजार में पूजा-अर्चना की सामग्री से लेकर पीतल-तांबा-एलुमिनियम-लोहा-चांदी आदि के बर्तन व सजावट की वस्तुएं फुटपाथ तथा बड़े दुकानों में मिलती हैं. हैंडलूम के कपड़े एवं पोशाक का एक बड़ा बाजार है पुरी. यहां की बोमकई, संबलपुर एवं कटकी साडियां महिला पर्यटकों को काफी पसंद आती हैं. इसके अलावे हेंडीक्राफ्ट के कई अच्छे कलेक्शन भी उपलब्ध हैं. सुबह से रात तक यहाँ बहुत चहल-पहल रहती है. पर्व -त्यौहार  के अवसर पर तो यहाँ बहुत भीड़ और चहल-पहल  होना स्वभाविक है. मंदिर  के सामने यातायात को कंट्रोल करते कई पुलिसवाले हैं. यहां-वहां चौपाया पशु भी दिखते हैं.

बताते चलें कि पुरी में दूध से बनी मिठाइयों की क्वालिटी बहुत अच्छी है और ये सस्ती भी हैं. इससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पुरी और उसके आसपास दूध प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है. हो भी क्यों नहीं, हमारे श्री जगन्नाथ अर्थात श्री कृष्ण अर्थात श्री गोपाल को दूध, दही, मक्खन इतना पसंद जो रहा है. फिर, उनके असंख्य भक्तों के पीछे रहने का सवाल कहां. हाँ, एक बात और. मौका  मिले तो राबड़ी, रसगुल्ला व दही का स्वाद जरुर लें. मंदिर के आसपास इनकी कई दुकानें हैं.  

करीब चार लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैले श्री जगन्नाथ मंदिर परिसर में प्रवेश के लिए सुरक्षा के मानदंडों का पालन अनिवार्य है. मोबाइल, कैमरा आदि बाहर बने काउंटर पर जमा करके ही अन्दर जाने की अनुमति है. मंदिर में प्रवेश के लिए चार द्वार हैं. पूर्व दिशा में स्थित है सिंह द्वार, जिसे मंदिर का मुख्य द्वार भी कहते हैं. पश्चिम द्वार को बाघ द्वार, उत्तर को हाथी द्वार और दक्षिण ओर स्थित द्वार को अश्व द्वार कहा जाता है.
    
हमें पुरी के “श्री जगन्नाथ मंदिर” में प्रवेश करते ही एक पंडा जी मिल गए, जो हमें मंदिर के सभी महत्वपूर्ण भागों में न केवल ले गए, बल्कि उसके धार्मिक-आध्यात्मिक पृष्ठभूमि की जानकारी दी. ज्ञातव्य है कि मुख्य मंदिर के आसपास तीस छोटे-बड़े मंदिर भी स्थित हैं. श्री जगन्नाथ मंदिर काम्प्लेक्स में ही माँ लक्ष्मी का भी मंदिर है, जहां जगन्नाथ जी के दर्शन के बाद जाने की परंपरा है.  

कहा जाता है कि चार धामों में शुमार “श्री जगन्नाथ मंदिर” की अनेक विशेषताएं हैं, जिनके विषय में जानकर अचरज में पड़ जाना अस्वाभाविक नहीं है. मसलन, मंदिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है; इस विशाल रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोइए एवं उनके 300 सहयोगी एकसाथ काम करते हैं; मिट्टी के बर्तनों में सारा खाना पकाया जाता है; रसोईघर  में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के सात बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं तथा  इंधन के रूप में लकड़ी का ही इस्तेमाल किया जाता है;  दिन के किसी भी वक्त मंदिर के मुख्य गुंबद की छाया अदृश्य ही रहती है; पुरी शहर के किसी भी भाग से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखें तो यह चक्र आपको हमेशा सामने से ही लगा हुआ दिखाई पड़ेगा; 214 फुट ऊँचे इस मंदिर के ऊपरी हिस्से में दिखने वाला ध्वज हमेशा हवा के विपरीत दिशा में लहराता रहता है आदि.

जानने योग्य बात यह भी है कि अष्टधातु से निर्मित सुदर्शन चक्र को, जिसकी परिधि करीब 36 फुट है, नीलचक्र भी कहा जाता है एवं इसे बहुत ही पवित्र -पावन माना जाता है. ऐसी और भी अनेक ज्ञानवर्द्धक  बातें इस मंदिर के साथ जुड़ी है.

मंदिर के गर्भ गृह में एक रत्न मंडित चबूतरे पर भगवान जगन्नाथ के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियां विराजमान हैं. ये तीनों मूर्तियां लकड़ी से बनी हैं, जिन्हें अनुष्ठानपूर्वक बारह वर्षों में एक बार बदला जाता है. 

मंदिर के शिखर पर लहराते ध्वज को बदलने का कठिन काम प्रतिदिन अपराह्न काल में करीब चार बजे के आसपास, यानी सूर्यास्त से पहले, किया जाता है. मंदिर के शिखर पर स्थित सुदर्शन चक्र के ऊपर सूर्य और चन्द्र अंकित लगभग 25 फुट लम्बा लाल या पीला एक बड़ा ध्वज लगाया जाता है, जो करीब 12 फुट ऊँचे सुदर्शन  चक्र से करीब 25 फुट और ऊपर सदैव लहराता रहता है. नील चक्र से नीचे की ओर अन्य अनेक छोटे –बड़े ध्वज लटकते –लहराते रहते हैं. सभी ध्वजों को रोज बदला जाता है. सौभाग्य से हमें इस पूरी प्रक्रिया को संपन्न होते हुए देखने का मौका मिला. हमारे तरह हजारों लोग इस रोमांचक दृश्य को देखने वहां मौजूद थे. कहते हैं, ऐसी भीड़ वहां उस वक्त हर रोज देखी जा सकती है. वाकई, इतनी ऊंचाई पर इतने ध्वजों को लेकर चढ़ना-उतरना, उन्हें उतारना–नए ध्वज लगाना,  बहुत ही जोखिम का काम है, तथापि इस कार्य को बड़ी कुशलता से मंदिर द्वारा अधिकृत दो व्यक्ति रोजाना नियमपूर्वक  करते हैं. मंदिर परिसर में ही “श्री जगन्नाथ जी” का प्रसाद प्राप्त करने की सुविधाजनक व्यवस्था कायम है.
                                                                                             
 पुरी में रथयात्रा सबसे बड़े  उत्सव के रूप में मनाया जाता है. नौ दिनों तक चलनेवाले इस अदभुत धार्मिक-आध्यात्मिक त्यौहार में स्थानीय लोगों के अलावे देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पूरे आस्था और उत्साह से शरीक होते हैं. इस मौके पर श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र और देवी सुभद्रा को लाखों श्रद्धालु इतने नजदीक से देख पाते हैं. रथयात्रा उत्सव आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को शुरू होता है. इस दिन अलग-अलग रथों में श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा को पूरे विधि –विधान से बिठाया जाता है और फिर  बड़ी संख्या में भक्तगण रथों को खींच कर दो किलोमीटर दूर गुंडिचा मन्दिर तक ले जाते हैं.

गुंडिचा मन्दिर बहुत ही खूबसूरत है जिसका निर्माण कलिंग वास्तुकला पर आधारित है. यह मंदिर श्री जगन्नाथ के मौसी घर के रूप में भी प्रसिद्ध है. श्री जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मन्दिर तक की सड़क बहुत ही चौड़ी और अच्छी है. सही है क्यों कि 60 फुट से ज्यादा चौड़े और 40 फुट से ज्यादा ऊँचे तीन रथों के साथ चलनेवाले लाखों श्रद्धालुओं के लिए ऐसी व्यवस्था अनिवार्य है. लकड़ी से बने रथों को तैयार करने का काम हफ़्तों चलता है और फिर अंत में तीनों रथों को अत्यन्त कलात्मक ढंग से सजाया जाता है. इस यात्रा में सबसे आगे श्री बलभद्र का ताल ध्वज रथ, बीच में देवी सुभद्रा का पद्म ध्वज रथ और उसके पीछे श्री जगन्नाथ का गरुड़ ध्वज रथ रहता है. एकादशी को वापसी यात्रा यानी बहुडा के बाद तीनों प्रतिमाओं को जगन्नाथ मंदिर के गर्भ गृह में आस्था और भक्तिभाव से फिर से स्थापित किया जाता है. हर साल इसी समय यह  कार्य पूरे धूमधाम से संपन्न होता है. ऐसे अब तो देश-विदेश में अनेक स्थानों में इसी समय रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है. 

पुरी में श्री जगन्नाथ मंदिर और समुद्र तट श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए सबसे बड़े आकर्षण के केन्द्र रहे हैं, तथापि कई अन्य दर्शनीय स्थल भी हैं जहाँ सालों भर पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है. श्री लोकनाथ मंदिर इनमें से एक है.  यह श्री जगन्नाथ मंदिर से करीब तीन किलोमीटर है. यह पुरी का सबसे पुराना मंदिर है जहाँ श्री लोक नाथ जी के नाम से भगवान शंकर की पूजा-अर्चना की जाती है. शिव रात्रि के मौके पर तो प्रत्येक वर्ष  यहां एक बड़ा मेला भी लगता है. 


नरेन्द्र या चंदन तालाब भी काफी खूबसूरत और लोकप्रिय पर्यटक स्थल है. यह स्थान श्री जगन्नाथ मंदिर से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है. हर वर्ष अक्षय तृतीया से 21 दिनों तक यहां  श्री जगन्नाथ का जल विहार उत्सव मनाया जाता है. यह तालाब 873 फुट लम्बा और 834 फुट चौड़ा है. यह स्थान श्री जगन्नाथ के बुआ के घर के रूप में भी जाना जाता है. इस परिसर में छोटे-छोटे कई मंदिर हैं जिनमें देवी –देवताओं की प्रतिमाएं विराजमान हैं. आपके पास समय हो तो आप बेदी हनुमान मंदिर, सुदर्शन क्राफ्ट म्यूजियम और श्री सोनार गौरांग मंदिर भी जा सकते हैं. 

अंत में एक और बात. पुरी में घूमते हुए हमें बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटर या मॉल दिखाई नहीं पड़े. सांस्कृतिक, पारम्परिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जड़ें आज भी ज्यादा मजबूत हैं यहां, ऐसा स्पष्ट जान पड़ता है.
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Tuesday, December 4, 2018

यात्रा के रंग अनेक : पुरी-जगन्नाथधाम और सागर विशाल

                                                                                                  -मिलन सिन्हा 
ट्रेन नियत समय के आसपास ही पुरी के तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ कर रुक गई. कई प्लेटफार्मों वाला पुरी रेलवे स्टेशन साफ़-सुथरा था.  इस दिशा का अंतिम स्टेशन होने के कारण डिब्बे खाली होने लगे और प्लेटफॉर्म पर यात्रियों का बहिर्गमन. आबोहवा में आद्रता की अनुभूति होने लगी. ट्रेन में हमारा डिब्बा पीछे होने के कारण निकास द्वार तक काफी चलना पड़ा, अपना-अपना ट्राली सूटकेस लेकर. ट्रेन के सहयात्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक ही सही, चलना अच्छा लगा. जाति, धर्म, भाषा, जिला-प्रदेश, गरीब-अमीर आदि भावनाओं से इतर सिर्फ मानवता का भाव लिए सभी इस यात्रा के अंत में अपने-अपने  गंतव्य की ओर अग्रसर थे. 

प्लेटफॉर्म से ही ऑटोवाले हमें हमारे रुकने के स्थान तक पहुँचाने के लिए तत्पर दिखे. एक–दो तो निकास द्वार तक आ गए – रेट वगैरह में कमीवेशी के बदलते ऑफर के साथ. बाहर निकला तो और अच्छा लगा. स्टेशन परिसर बहुत बड़ा और अपेक्षाकृत व्यवस्थित एवं साफ़–सुथरा. कुछ और सोचता, तबतक दो-एक रिक्शेवाले ने भी साथ चलने का आग्रह किया. एक क्षण तो ऐसा लगा कि हमें होटल तक पहुंचाने के चक्कर में रिक्शेवाले और ऑटोवाले के बीच झगड़ा न हो जाए. खैर, बात वहां तक पहुंचने से पहले ही ऑटोवाले को दूसरी सवारी मिल गयी और वह उधर लपका. हमें भी दूसरा ऑटोवाला मिल गया. इस सबके बीच मेहनत करके अपना पेट पालने को तत्पर कई लोगों से हमें फिर दो-चार होने का मौका मिला; अपने देश में कितनी बेरोजगारी है, इसका प्रमाण भी.

पुरी स्टेशन से निकलकर होटल के रास्ते हम बढ़ चले. इसी क्रम में पुरी का आकाशवाणी केन्द्र दिखा. इसी रास्ते में  दिखा राजभवन का पुरी परिसर एवं दो सरकारी गेस्ट हाउस. ऑटोवाले ने बताया कि ये सभी बड़े परिसर समुद्र तट पर स्थित हैं. तुरत यह ख्याल आया कि ब्रिटिश राज ख़त्म होने के सात दशक बाद भी जनता के प्रतिनिधि के रूप में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों के लिए हर बड़े शहर में एक अलग आलीशान व सुसज्जित परिसर की जरुरत क्यों है ? लोकतंत्र में ऐसे आडम्बर और विलासिता के प्रतीक जिनके रख-रखाव पर हर साल आम जनता के टैक्स का लाखों का खर्च होता है, के स्थान पर करोड़ों गरीब-वंचितों के मुफ्त इलाज के लिए एक अच्छा अस्पताल खोला जा सकता है, अनाथ और अशक्त बच्चों के मुफ्त शिक्षा के लिए एक अच्छा स्कूल खोला जा सकता है या फिर जन कल्याण के ऐसे ही कई अन्य काम किये जा सकते हैं. इसी सोच-विचार में न जाने कब हम पुरी में समुद्र तट के निकट अवस्थित अपने होटल के पास पहुंच गए. 

होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रहा था कि ऐसी किसी भी यात्रा के दौरान अनायास ही हम-आप आशा-अपेक्षा, करुणा-प्रेरणा, हास-परिहास, सीखने-बताने, देखने-दिखाने, सोचने-विचारने सहित जीवन के  विविध रंग-बिरंगे अनुभवों-अनुभूतियों  से हो कर गुजरते रहते हैं. जीवन को जीवंत और समाजोपयोगी बनाए रखने में इसकी बड़ी भूमिका भी तो होती है! 
                                                                                                  
थोड़ा फ्रेश होकर हम सागर तट के पास स्थित अपने होटल से निकल पड़े. दो-तीन मिनट में हम समुद्र तट पर थे. पुरी के समुद्र की बात ही कुछ अलग है. साफ़ पानी, दूर तक फैला समुद्र, उसके साफ़ –सुथरे तट और उसके सामान्तर चलते मुख्य सड़क से सटे कतार में एक के बाद दूसरे होटल की लम्बी कड़ी. उत्तर भारत में जब अक्टूबर से फरवरी तक ठंढ से लोग ठिठुरते रहते हैं, तब पुरी में पर्यटकों की बहुत भीड़ होती है. कारण यहाँ मौसम बहुत सुहाना होता है – न ज्यादा गर्मी और न ज्यादा ठण्ड. सागर तट पर तो मेले जैसा माहौल रहता है. आज भी वहां वही हाल था. कुछ बच्चे और युवा तटीय रेत पर कुछ-कुछ खेल रहे थे तो कुछ घोड़े और ऊंट की सवारी का मजा ले रहे थे. तट पर हर तरह की खाने-पीने की चीज बिक रही थी - गोलगप्पे, चाट, भुट्टे, आलू चिप्स, हर तरह के मौसमी फल और तरह-तरह की मिठाइयाँ. मदन मोहन नाम से एक मिठाई भी थी. सुनकर चौंका. हिन्दी सिनेमा के प्रख्यात संगीतकार मदन मोहन के सुरीले संगीत से सजे गाने याद आ गए. मिठाईवाला आवाज लगाते आगे बढ़ गया था. झटक के उसके पास गया और छेने की रसदार मिठाई मदन मोहन का आनन्द उठाया. वाकई नाम के अनुरूप स्वादिष्ट.

तट पर घूमते हुए हमने देखा कि कहीं  मोतियों के हार बिक रहे थे तो कहीं भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं देवी सुभद्रा के तरह-तरह के आकर्षक फोटो, छोटे-बड़े शंख, सीप से बनी चीजें आदि. रोचक बात है कि सागर तट के आसपास घूम-घूमकर मोती और मोती के हार आदि बेचनेवाले ज्यादातर लोग ओड़िशा के सीमा से लगे आंध्र प्रदेश के रहनेवाले हैं. उनसे बात करने पर पता चला कि समुद्र में पाए जाने वाले सीप से निकाले गये प्राकृतिक मोती के अलावे कृत्रिम मोती के व्यवसाय में ये लोग सालों से लगे हुए हैं. सागर तट पर टहलते-घूमते लोगों में बीच-बीच में यहां-वहां हलचल होते रहते हैं और आप लोगों को छोटे-छोटे झुण्ड में देख सकते हैं. दरअसल, जब भी कोई नाव समुद्र से तट पर आता है, तो साथ में जाल में फंसी मछली आदि के अलावे छोटे-बड़े सीप भी होते हैं, जिनमें प्राकृतिक मोती होने की बात नाविक-मछुआरे करते रहते हैं. ऐसे मोती को देखने और खरीदने की चाह में हलचल होती है, पर्यटकों की भीड़ लगती है. जानकार कहते हैं कि बिना जांचे-परखे सिर्फ जल्दबाजी में ऐसी खरीदारी घाटे का सौदा भी साबित हो सकता है. 


पुरी के समुद्र तट के सामान्तर मुख्य सड़क के फुटपाथ पर सुबह-शाम अनेक लोगों को टहलते-दौड़ते देखना अच्छा लगता है. यह सड़क आगे करीब तीन किलोमीटर तक वैसी ही खूबसूरत है. आगे एक लाइट हाउस भी है. आसपास की गलियों  में पर्यटकों को सहज आकर्षित करने वाली चीजों की स्थायी दुकानें भी हैं.
                                                                   
पुरी के समुद्र में स्नान करनेवाले और तैरते–खेलते हर उम्र के लोग बड़ी संख्या में आपको मिल जायेंगे –पूरे उत्साह, उर्जा और उमंग से लबरेज. ऐसे कार्यकलाप में शामिल युवाओं का छोटा-बड़ा ग्रुप भी आपको यहां-वहां दिख जायेंगे. स्नानादि करते वक्त कोई दुर्घटना न हो जाए, इसके लिए इहतियाती  इंतजाम के तहत समुद्र तट के पास ही विभिन्न स्थानों पर गोताखोर तथा सुरक्षाकर्मी मौजूद दिखे.

समुद्र किनारे बैठ कर सूर्योदय और सूर्यास्त का आनंद उठाना हर कोई चाहता है. प्रकृति का यह अप्रतिम सौन्दर्य आपको अंदर तक आनन्दित कर देता है, आपकी यादों में वर्षों तक रचा-बसा रहता है. ऐसे, सागर तट पर सैकड़ों लोग भी मिलेंगे जो घंटों रंग-बिरंगे छतरियों के नीचे कुर्सी या रेत पर बैठे  चाय, कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिंक, गन्ने का रस, डाब आदि का सेवन करते और समुद्र की लहरों का आनन्द लेते रहते हैं. शायद उनके यहां  आने और आनंद के सागर में डुबकी लगाने के पीछे छुपी प्रेरणा या भावना को स्वर देने के लिए  पास ही में एक  झालमूढ़ी बेचने वाले के मोबाइल (एफएम ) पर यह गाना बज रहा था,  'दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन ....' 

कहने की जरुरत नहीं कि सुबह और शाम के वक्त सागर तट पर भीड़ ज्यादा होती है और चहल-पहल  भी. संध्या समय गर्मागर्म समोसे, आलू चाप, पकौड़ी आदि के साथ चाय-काफी का आनन्द उठाते पर्यटकों के झुण्ड छोटे-छोटे दुकानों के पास देखे जा सकते हैं. तट पर और उसके आसपास भी सफाई व्यवस्था को अच्छा बानाए रखने के लिए सफाई कर्मी तत्परता से लगे दिखाई पड़ते हैं. 

सागर तट पर घूमने के क्रम में सौभाग्य से हमें दिखे रेत पर रेत से अपनी कला का प्रदर्शन करते कई आर्टिस्ट. ऐसे तो इस कला की बात चलते ही विश्व प्रसिद्ध कलाकार सुदर्शन पटनायक का नाम सबसे ऊपर आता है जिनकी बनाई कलाकृतियों को आप पुरी के समुद्र तट पर बहुधा देख सकते हैं. लेकिन उनके अलावे भी कई लोग हैं जो नियमित रूप से अपने इस कला कर्म में तन्मयता से लगे दिख जाते हैं. दिलचस्प बात यह कि ये कलाकार रेत अर्थात बालू  पर कई घंटों के मेहनत से किसी कलाकृति का निर्माण करते हैं, जो महज कुछ घंटों तक ही प्रदर्शित हो पाता है. जानकर अच्छा लगा कि  हर साल नवम्बर के शुरू में पुरी समुद्र तट महोत्सव (पुरी बीच फेस्टिवल) बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इसमें रेत कलाकार भी बढ़–चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. दरअसल इस फेस्टिवल में ओड़िशा की वास्तुकला, चित्रकला, व्यंजनकला आदि के साथ-साथ सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े रंग-बिरंगे कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जो स्थानीय लोगों के अलावे पर्यटकों को भी पसंद आते हैं.   .... आगे जारी ....
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Friday, November 30, 2018

यात्रा के रंग अनेक : अब पुरी की ओर

                                                                                                      - मिलन सिन्हा 
कई सालों की इच्छा और अनेक बार बनाए गए कार्यक्रम को  साकार करने का दिन था. देश के एक प्रसिद्ध धार्मिक–आध्यात्मिक के साथ–साथ एक बेहद लोकप्रिय पर्यटन स्थल ‘पुरी’ प्रस्थान के लिए घर से निकला. ऑटो से हमें  हटिया स्टेशन जाना था. बताते चलें कि झारखण्ड की राजधानी रांची शहर में दो रेलवे स्टेशन है, एक रांची और दूसरा हटिया. दक्षिण पूर्व रेलवे के इस महत्वपूर्ण स्टेशन से रोजाना दर्जनों ट्रेनों का आना-जाना है. खैर, ऑटो से हम चल पड़े. घर से हटिया स्टेशन करीब पांच किलोमीटर होगा. रास्ते में कई चौराहे आते हैं. हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस आवागमन को सुचारू बनाए रखने के लिए तैनात रहती है. रांची की सड़कें ठीक-ठाक हैं, चौड़ी भी हैं, लेकिन कई स्थानों में अतिक्रमण का असर साफ दिखता है, हाई कोर्ट तक ने इस पर एकाधिक बार नाराजगी जताई है. सड़क पर हर तरह के वाहनों – साइकिल, मोटरसाइकिल, स्कूटर, रिक्शा, ठेला, ऑटो, कार, सिटी बस, स्कूल बस आदि की संख्या बढ़ती आबादी और अति सुलभ बैंक लोन (ऋण) के कारण निरंतर बढ़ती जा रही है. ट्रैफिक नियमों के अनुपालन में सुधार की बड़ी गुंजाइश तो है ही. ऐसी परिस्थिति में घर से स्टेशन पहुंचने के लिए सामान्य यात्रा समय से एक घंटे का मार्जिन लेकर चलने के बावजूद हम लोग ट्रेन खुलने से मात्र पांच मिनट पहले हटिया स्टेशन पहुंच सके, वह भी तब जब ऑटो चालक ने ज्यादा भीड़ वाले एक-दो चौराहे से पहले ही गलियों के रास्ते गाड़ी निकालने की बुद्धि लगाईं.    

वहां पहुँचते ही जाने क्यों स्मृति के एक कोने से गाने की ये पंक्तियां सुनाई देने लगी, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है .... जल्दी से एक नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचा. डिब्बे में सामान रखा. तपस्वनी एक्सप्रेस ट्रेन, जो अपराह्न 4 बजे हटिया से रवाना होकर अगले दिन सुबह 7.15 बजे पुरी स्टेशन पहुँचती है, समय से खुल गयी. 

कम समय में ही जितना देख पाया, हटिया स्टेशन परिसर की सफाई बेहतर लगी. सूटकेस –बैग आदि को ठीक से रखने और अपनी सीट पर इत्मीनान से बैठने के कुछ देर बाद डिब्बे का मुआयना कर लिया. सफाई सहित अन्य बातें भी संतोषप्रद थीं. 

अमूमन ट्रेन के सामान्य आरक्षित डिब्बे के एक खाने में आठ लोगों के शयन हेतु शायिका की व्यवस्था होती है. हम जहाँ बैठे थे वहां गाड़ी खुलते वक्त 6 लोग आ चुके थे. आपसी वार्तालाप में पता चला कि उनमें जो दो लड़के थे, वे भुवनेश्वर तक जायेंगे और हमारे अलावे एक अल्पवय दंपति पुरी तक. गाड़ी के रफ़्तार पकड़ते ही चाय, समोसा, चना, चिप्प्स आदि बेचने वाले आने-जाने लगे, अलग-अलग स्वर व अंदाज में आवाज लगाने लगे. ट्रेन यात्रा में ऐसे खाने –पीने का सामान बेचने वाले अगर न हो तो यात्रा कैसी होगी, ऐसा हमने कभी सोचा भी है ? शायद कई लोगों को भूखे-प्यासे ही सोना पड़े, जीभ जैसे संवेदनशील अंग को तरसते-तड़पते कई घंटे गुजारने पड़े, स्वरोजगार के मार्फ़त अपने और अपने परिवार का लालन-पालन करनेवाले अनेक लोगों को बेकार-बेजार रहना पड़े, अनेक पुलिसवाले और रेल कर्मियों को खाने-पीने के लिए अपनी जेब ढीली करने पड़े.... 

खैर, जैसे हमें उनकी जरुरत है, वैसे ही उन्हें हमारी जरुरत होती है. माने-न-माने दिलचस्प पहलू यह भी है कि क्रेता-बिक्रेता का यह अस्थायी संबंध हमारी यात्रा में हमें जाने-अनजाने जीवन के कितने अनछुए पहलुओं से परिचित  करवाता है, हमारे जीवन को थोड़ा और सक्रिय कर जाता है – सोच व भावनाओं के स्तर पर ही सही.    

करीब तीन घंटे के बाद एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकी और डिब्बे में हलचल हुई. कुछ लोग उतरे, कुछ लोग सवार हुए. नीचे उतरा. यह राउरकेला स्टेशन था. वही राउरकेला जो ओड़िशा राज्य के उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित प्रदेश का तीसरा बड़ा शहर है. इस नियोजित शहर को अन्य बातों के अलावे सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित होनेवाले देश के पहले बड़े स्टील प्लांट के लिए जाना जाता है. जर्मनी के सहयोग से स्थापित होने वाले राउरकेला स्टील प्लांट के पहले वात भट्ठी (ब्लास्ट फरनेस) का उदघाटन देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद द्वारा फरवरी,1959 में किया गया था.  

रात हो चुकी थी. राउरकेला स्टेशन का प्लेटफार्म बिलकुल साफ़ –सुथरा एवं रोशनी में नहाया हुआ लग रहा था. स्टेशन के दूसरे प्लेटफार्म पर नजर गयी तो वहां भी वैसा ही दृश्य था. इन दिनों रेल यात्रा के बेहतर होने, रेल परिचालन एवं व्यवस्था में बेहतरी की बात सुनने को तो मिल ही रही थी, आज देखा तो यकीन हो गया. उम्मीद है, आनेवाले दिनों में यह सिलसिला और सुदृढ़ होगा, क्यों कि उत्कृष्टता कोई मंजिल तो है नहीं, यह भी एक यात्रा ही तो है !

गाड़ी चल पड़ी. लौटा तो पाया कि इस बीच हमारे पास के दो शायिकाओं में ट्रेन में यात्रा के दौरान रात गुजारने दो यात्री आ गए थे. पूछा उनसे तो पता चला कि वे लोग पिछले दो वर्षों से राउरकेला में रहते हैं और आज भुवनेश्वर जा रहे है, एक ऑफिसियल मीटिंग में भाग लेने. राउरकेला के बाबत कुछ और जानने की इच्छा प्रबल हो उठी, सो उनसे पूछ बैठा. उन्होंने हमें बताया कि यह शहर सुन्दरगढ़ जिले में बसा है जो खनिज सम्पन्न इलाका है. दरअसल, यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है जो आधुनिकता और पारंपरिकता के साथ-साथ  जनजातीय संस्कृति को भी बढ़िया से समेटे हुए है. औद्योगिक शहर होने के कारण यहाँ देश के हर प्रदेश के लोग रोजगार और नौकरी के सिलसिले में आते-जाते रहते हैं.  1961 में स्थापित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी, राउरकेला) का भी इसमें विशेष योगदान रहा है. इसे ओड़िशा की व्यवसायिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है. यह इलाका नदियों और पहाड़ों से घिरा है. यहाँ दर्शनीय मंदिर और वॉटरफॉल भी हैं. उन्होंने स्थानीय लोगों के रहन-सहन, खान-पान आदि के बारे में भी बताया. 

कुछ देर बाद वे दोनों ऊपर आमने-सामने के बर्थ पर जा बैठे और फिर उनके बीच कामकाजी बातचीत चल पड़ी. एक ने कहा कि उनके बॉस एक काम ख़त्म होने से पहले ही दूसरे काम के लिए अनावश्यक दवाब बनाना शुरू कर देते हैं. ऑफिस समय के बाद वजह-बेवजह डांट–फटकार करते हैं, नौकरी से निकालने की धमकी तक देते रहते हैं. दूसरा व्यक्ति बीच-बीच में उसे प्रैक्टिकल बनने, बॉस को मैनेज करने, थोड़ा चालाक बनने की सलाह दे रहा था, जिसे उसका साथी यह कह कर नकार रहा था कि जब मै पूरी तन्मयता और ईमानदारी से काम कर रहा हूँ, तो गलत हथकंडे क्यों अपनाऊं? दोनों के बीच काफी समय तक गर्मागर्म बातचीत चलती रही. कहने की जरुरत नहीं कि देश –विदेश में खासकर कॉरपोरेट जगत में कार्यरत लाखों अच्छे व सच्चे युवा कर्मियों के लिए यह  मानसिक तनाव का बड़ा कारण रहा है. इसका बहुआयामी नकारात्मक असर खुद उस व्यक्ति पर तो पड़ता है, उसका परिवार भी उससे दुष्प्रभावित होता है. कहने का सीधा अभिप्राय यह कि कई मायनों में समाज के हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह एक गंभीर विचारणीय विषय था, है और रहेगा जिसका प्रभावी समाधान व्यक्ति-समाज–सरकार को मिलकर ढूंढने की जरुरत है.

नौ बजने को थे. सबने खाने का उपक्रम शुरू किया, सिवाय एक यात्री के. खाना शुरू करने से पहले मैंने पूछा, तो उन्होंने  बताया कि उनका पेट गड़बड़ है. दिन में कुछ ऐसा-वैसा खा लिया था, सो अब उपवास. दवाई है, जरुरत होगी तो ले लेंगे. कहते हैं, उपवास भी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार एक प्रकार का उपचार ही है. शायद तभी भारतीय जीवन पद्धति में उपवास को स्वास्थ्य प्रबंधन का एक अहम हिस्सा माना जाता रहा है.

बहरहाल, अपने-अपने बर्थ पर लेटने के बाद भी बॉस प्रकरण पर कुछ देर तक उन दोनों के बीच चर्चा चलती रही, साथ में सहमति-असहमति का सिलसिला भी. उसी विषय पर विचार एवं समाधान मंथन के क्रम में मैं भी काफी वक्त तक जगा रहा. उस बीच वे लोग सो चुके थे, जिसका पता उनके खर्राटों से चल रहा था. बत्ती बुझा कर मैं भी सो गया.       

बीच में कई छोटे-बड़े स्टेशन आते रहे, ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर जंक्शन सहित. हलचल–कोलाहल भी होते रहे. क्षण भर के लिए उचटती-टूटती-फिर गहराती नींद के बीच करवटें बदलते हुए यात्रा जारी थी.
                                                                                              
सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर खड़ी थी. नाम था – साक्षी गोपाल.  वहाँ से पुरी की दूरी करीब 20 किलोमीटर थी. यह स्थान एक धार्मिक प्रसंग से जुड़ा है, ऐसा लोग कहते हैं. कथा कुछ ऐसी है : एक बार श्री कृष्ण अर्थात गोपाल दो ब्राह्मणों के बीच एक विवाद के निबटारे के सिलसिले में गवाह यानी साक्षी के रूप में यहाँ आये थे और इस स्थान की प्राकृतिक सुन्दरता से प्रभावित होकर कुछ दिनों तक रुके थे. कहने का तात्पर्य यह कि साक्षी देने के लिए गोपाल यहाँ आये थे, लिहाजा यह स्थान साक्षी गोपाल के नाम से जाना जाता है. स्टेशन से करीब एक किलोमीटर दूर मुख्य मंदिर है जहाँ श्री गोपाल की मूर्ति स्थापित है. इस स्थान को सत्यवादीपुर के नाम से भी जाना जाता है.

खैर, स्टेशन पर चाय, समोसा, चनाचूर आदि के स्थान पर सुबह-सुबह डाब अर्थात नारियल पानी बेचते कई लोग दिखे, वह भी बिलकुल ताजा और सस्ता भी. बहुत अच्छा लगा. शायद आप जानना चाहें, आखिर क्यों? तो बताते चलें कि स्वास्थ्य की दृष्टि से डाब एक बेहतर प्राकृतिक पेय है. इसमें काफी  मात्रा  में विटामिन - सी, मैग्नीशियम, पौटेशियम और दूसरे महत्वपूर्ण खनिज होते हैं. माना जाता है कि सुबह - सुबह नारियल पानी पीना ज्यादा फायदेमंद होता है. यह हमारे पाचन तंत्र को ठीक रखने,  रक्त चाप को नियंत्रित करने और सिरदर्द एवं माइग्रेन को कम  करने के साथ –साथ  हमारी अन्य कई शारीरिक समस्याओं में लाभकारी  सिद्ध  होता है. इसमें अपेक्षाकृत कम शूगर एवं फैट होने के कारण इसे  एक उपयुक्त  एनर्जी और स्पोर्ट्स ड्रिंक भी  माना जाता है.

ट्रेन आगे बढ़ी तो रेलवे लाइन के दोनों ओर दूर तक नारियल के पेड़ दिखते रहे, पूरे फलदार. सागर तट निकट आने का एहसास भी होता गया. हम पुरी पहुंचने को थे. पुरी अर्थात पुरुषोत्तम पुरी अर्थात जगन्नाथ पुरी ओड़िशा का एक छोटा शहर है; जिला मुख्यालय भी है. इसी जिले में विश्व प्रसिद्ध ‘कोणार्क मंदिर’ और ‘चिल्का लेक’ भी है. 
जिले में करीब आधा दर्जन मौसमी नदियों का जाल बिछा है. ये सभी मुख्यतः महानदी की शाखाएं हैं.  पुरी शहर की आबादी करीब तीन लाख है. धान यहाँ का मुख्य फसल है. ज्यादातर लोग छोटे व्यवसाय और कृषि से जुड़े हैं. ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर से यह ऐतिहासिक शहर करीब 60 किलोमीटर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी के समुद्र किनारे अवस्थित है. कई कारणों से पुरी पूरे देशभर के पर्यटकों के लिए बेहद पसंदीदा स्थल रहा है – बारहवीं शताब्दी में बना विश्व विख्यात जगन्नाथ मंदिर, दूर तक फैला खूबसूरत समुद्र तट, वहां के आतिथ्य पसंद लोग के साथ-साथ  रहने एवं खाने-पीने की बेहतर एवं अपेक्षाकृत सस्ती व्यवस्था. निश्चित ही ये सब भी अहम कारण होंगे कि रोजाना यहाँ औसतन 50 हजार पर्यटक आते हैं. ...आगे जारी ....    (hellomilansinha@gmail.com)                                                                                           ....फिर मिलेंगे, बातें करेंगे - खुले मन से ... ...
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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